________________
६६६]
धरणानुयोग
राजा के समीर ठहरने आदि का प्रायश्चित्त सूत्र
सूत्र १५६-१५१
पहुच्च णिषस्यमई वा, पविसह बा, मिक्समतं वा पविसंत निष्क्रमण-प्रवेश करता है, करवाना है या करने वाले का अनुथा साहज्जा ।
मोदन करता है। तं सेवमाणे आवाज चाउम्मातियं परिहारट्टाणं उसे चातुर्मालिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त)
अणुग्धाइयं । ___-- नि. उ. ८. सु. १२-१३ आता है। राय समोवे विहरणाई पाछिस सुत्रा
राजा के समीप ठहरने आदि का प्रायश्चित्त सूत्र--- १५७. अह पुण एवं जाणेज्जा 'इहज्ज रायत्तिए परिसिए" १५. पति एक ज्ञात हो जाणे वि. आज या क्षत्रिय राजा रहे
भिक्खू ताए निहाए ताए पएसाए ताए उवासंतराए, विहारं हुए हैं तब जो भिक्षु उस गृह में उस प्रदेश में उस अवकाशान्तर वा करेड, सज्लायं वा करेड, असणं घा-जान-सादम वा में बिहार करता है (ठहरता है।, स्वाध्याय करता है, अशन आहारेह, उच्चार वा, पासवणं वा परिवेद, परिवेतं वा -यावत् - स्वाद्म ना आहार करता है, मल-मूत्र का परित्याग साइज्जइ।
करता है, वरवाता है या करने वाले का अनुमोदन करता है । तं सेवमाणे आवजा चाउम्मासियं परिहाराणं उसे चातुर्मासिक अनुद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) अणुग्याइयं ।
-नि. उ. १, सु. ११ आता है।
वस्त्रषणा :
वस्त्रेषणा का स्वरूप-१ [१]
णिग्गंथ-निग्गंथोणं वत्येसाणा सहवं
निग्रंथ-निर्ग्रन्थियों की वस्त्र षणा का स्वरूप--- १५८. वत्वं पडिगह कंबल पापुंछणं' उपगहं च कडासण एतेसु १५८ वह (संयमी) वस्त्र, पात्र, कम्बल, पादपोटम (पांठ पोंछने चेव जाणेज्जा।
का बस्त्र), अवग्रह-स्थान और कटासन आदि (जो गृहस्थ के लिए -आ. सु. १, अ. २, उ, ५, मु. ८६ (क) लिमित हो) उनकी याचना परे । पडिलेहणाऽणतरमेव वत्थ गहण विहाणं
वस्त्र का प्रतिलेखन करने के बाद वरत्र ग्रहण का विधान१५६. सिया से परो मेत्ता वत्थं निमिरेग्जा, से पुष्व मेव आलो. १५६. यदि गृहस्वामी (साधु के द्वारा यावना करने पर वस्त्र
(ताकर साधु को दे, तो वह पहले ही उसे बहे"आउसो ! ति वा, भहणी ! ति वा. तुमं चेषणं संति आयुष्मन् गृहस्थ ! या बहन ! तुम्हारे वस्त्र को मैं अदर पत्थं अंतो अंतेणं परिलहिस्सामि।"
और बाहर चारों ओर से भली-भाँति देखेंगा।" केवली बूया -"आयाणमेव !
केवली भगवान ने कहा है-'प्रतिलवन किए बिना बस्त्र सेना कर्मवन्धन का कारण है।"
१ अतीत में "पायछणं" कैसा उपकरण था-वह बर्तमान में समझना अति कठिन है क्योंकि कहीं "पायपुंछणं" रजोहरण माना गया है और कहीं "पावण" तथा "रजीहरण' अलग-अलग कहे गये हैं।
प्रश्नव्याकरण तथा दशकालिक सूत्र में पायमणं" का अर्थ 'पैर पोछने का वस्त्र किया गया है। इन दोनों स्थलों में दोनों उपकरणों का एक साय कथन हुआ है। अतः दोनों ही भिन्न भिन्न उपकरण होना सिद्ध होता है ।
आ. सु. २, म. १०, सु. ६४५ में मल-विसर्तन आवश्यक हो तो उस समय अपना "पाचपुष्ण" हो तो उसका उपयोग को, न हो तो साथी श्रमण से लेकर उसका उपयोग करे । इससे अनुमान होता है कि यहां पर मल विसर्जन के बाद मलद्वार को पोंछने के लिए प्रयुक्त जीर्ण-वस्त्र के खण्ड को पायप्छणं" माना है।
इन विभिन्न मन्तव्यों के होते हुए भी यह निश्चित है कि अतीत में "पायपुंछण" एक आवश्यक उपकरण था। इसलिए इसका अनेक जगह उल्लेख है।