Book Title: Charananuyoga Part 1
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 728
________________ ६६६] चरणानुयोग कन्दादि निकालकर दिए जाने वाले पात्र के ग्रहण का निषेध सूत्र २३८-२३६ wwwwwwwwwwww कंदाइ-विसोहिय-पडिग्गहस्स गहण णिसेहो कन्दादि निकालकर दिये जाने वाले पात्र के ग्रहण का निषेध२३८. से गं परो पत्ता बवेज्जा २३८. यदि वह गृहस्थ अपने घर के किसी व्यक्ति से यों कहे कि"बाउसो ! ति, या भइणी । तिवा, आहर एवं पार्य कंदाणि "आयुगमन ! भाई या बहन ! उस पात्र को लाओ, हम या-जाव-हरियाणि वा वसाहता समणस्स दासामो" उसमें से कन्द-यावत - हरी बनस्पति (निकालकर.) विशुद्ध करके साधु को देंगे।" एतप्पगारं णिग्योसं मोच्चा निसम्म से पुब्बामेव आलोएज्जा, इस प्रकार गुनकर नमनाकर वह पहले ही दाता से कह दे - 'आउसो ! ति वा, भइणी ! ति बा. मा एताणि तुमं "आयुष्मन् गृहस्थ ! या बहन ! इस पात्र में से कन्द कंदाणि वा-जाद-हरियाणि वा विसोहेहि, पो खलु मे कप्पति -यावत्-हरी वनस्पति (निकालकर) विशुद्ध मत करो मेरे एपपगारे पाये पडिगाहितए । लिए इस प्रकार का पात्र ग्रहण करना कल्पनीय नहीं है। से सेदं वदंतस्स परो कदाणि वा जात्र-हरियाणि का विसो- साधु के द्वारा इस प्रकार कहने पर भी वह कन्द- यावत् - हेत्ता दलएज्जा । तहप्पगारं पाय अफामुय-जाव-गो पडिया- हरी वनस्पति को (निकालकर) विशुद्ध करके देने लगे तो उस हेम्जा । -आ. सु. २, अ. ६, उ. १, सु. ५६५ (ग) प्रकार के पात्र को अप्रासुक लानकर-यावत् - ग्रहण न करे। उद्देसिय पाण-भोयण सहिय पडिग्गह गहण णिसेहो- भौशिक पान-भोजन सहित पात्र ग्रहण का निषेध२३६. से णं परो णेत्ता बदेज्जा २३६. (दानित) पोई गृहमायक साधु से इस प्रकार पन्हे''आउसंतो समणा ! मुहत्तम मुहुत अच्छाहि -जाय-ताब 'आयुष्मन् अंग! आप मुहर्तगर्पन्त (छ समय) ठहरिए । अम्हे असणं वा-जाव-साइमं वा उबकरेसु वा. उघबखाउँसु था, जब तक हन आना-यावत् स्वादिम आहार जुटा लें मा तो ते वय आउसो ! सप्माणं समोयणं पडिगह दासामो, तैयार कर लें, तब हम आप को पानी और भोजन से भरकर तुच्छए पडिगहे दिग्णे समणस्स णो सुख, गो साहु भवति ।" पात्र देंगे क्योंकि साधु को खाली पात्र देगा अच्छा और उचित नही होता। से पुव्यामेव आलोएज्जा इस पर साधु पहले ही उस गृहस्थ से कह दे -- "आउसो ! ति वा, भइणी ! ति वा, णो सतु मे कप्पति 'आयुष्मन् गृहस्थ . या बहन ! मेरे लिए आधाकर्मी अशन आधाकम्मिए असणे वा-जाव-साइमे या भोत्तए वा, पायए यावत---स्वादिम लाना या पीना कल्पनीय नहीं है। अतः वा, मा उवकरेहि, मा उवक्खडे हि, अमिक खसि मे वा तुम आहार की सामग्री मत जुटाओ, आहार तैयार न करो। प्रमेव दलयाहि ।" यदि मुझे पान देना चाहते हो तो ऐसा (बाली) ही दे दो।" से सेवं वक्तस्स परो असणं वा-जाव-साइमं बा, उक्करेत्ता, साधु के इस प्रकार कहने पर भी यदि कोई गृहस्थ अशन उवखरेता सभाणं सभोयणं पजिगह वलएज्जा, तह पगारं –यावत् -स्मादिम आहार की सामग्री जुटाकर अथवा तैयार परिग्गहं अफासुय-जाव-णो पष्टिगाहेजा। कारके पानी और भोजन भरकर साधु को वह पात्र देने लगे, तो -आ. सु. २, अ. ६. र. १, सु. ५६८ उस प्रकार के पाब को अरासुक समझकर--थावत्-ग्रहण न करे।

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