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७२.
चरणानुयोग
परिष्ठापना समिति का स्वरूप
सूत्र २६३-२६५
(५) उच्चार-प्रस्त्रवण निक्षेप समिति
परिष्ठापना की विधि-१
परिट्रावणिया समिई सहवं.२६३. उच्चारं पासवणं, खेल सिधाण-जल्लियं । आहारं उहि देह, अन्नं वावि तहाविहं ।।
-उत्त. अ. २४, गा, १५
उपचारं पासवणं, खेल सिंघाण जल्लियं । फामुयं पहिले हित्ता, परिष्ट्रावेज संजए ।।
___-दस. न.६, मा.१८ पंडिलस्स चउभंगो२६४. अणावायमसंलोए, अणावाए चेव होइ संलोए । आवायमसंलोए, आवाए चेव संलोए ।।
-उत्त. अ. २४, गा.१६
परिवारमा सानातिका स्वरूप२६६. उपचार- मल प्रस्रवण' = सूत्र, एलेप्म, मुंह के अन्दर का कफ, सिंघाणक - नासिका कामल, जल्ल-शरीर पर का मैल, आहार, उपधि, शरीर या उसी प्रकार की दूसरी कोई उत्सर्ग करने योग्य वस्तु का श्रमण स्थण्डिल में उत्सगं करे ।
संयमी मुनि प्रासुक (जीव रहित) भूमि का पतितेखन कर वहाँ उच्चार, प्रस्रवण, श्लेम, नाक के मल और शरीर के मैल का उत्सर्ग करे। स्थण्डिल को चोभंगी२६४. चार प्रकार के स्थगिडल
१. अनापात-असंलोक-जहाँ लोगों का आवागमन न हो और वे दुर से भी न देखते हैं।
२. अनापात-संलोक-जहाँ लोरों का आवागमन हो, किन्तु वे दूर से देखते हों।
३. आपात-असंलोक-जहाँ लोगों का आवागमन हो, किन्तु वे देखते न हों।
४. मापात-संलोक--जहाँ लोगों का आवागमन भी हो, और वे देखते भी हों। दस लक्षण युक्त स्थंडिल में परठने का विधान२६५. १. जहाँ कोई आता नहीं और देखता भी नहीं।
२. जहाँ पर मल-मूत्रादि डालने से किसी व्यक्ति को आघात न पहुंचे।
३. भूमि सम हो।
४. पोलार रहित अर्थात् तृपादि से आच्छादित व दरारों से युक्त न हो।
५. कुछ समय पहले ही अचित हुई हो। ६. विस्तीर्ण हो (कम से कम एक हाथ लम्बी चौड़ी हो) ।
७. बहुत गहराई (कम से कम चार अंगुरू नीचे) तक अचित्त हो।
८. प्रामादि से कुछ दूर हो। ६. मूषक, चींटियां आदि के बिलों से रहित हो । १०. बस प्रागियों एवं बीजों से रहित हो । तो वहाँ भिक्षु या भिक्षुणियां मल-मूत्रादि का परित्याग करें।
वस लक्षण जुत थंडिले परिद्वयण विहाणो२६५, अणवायमसंलोए, परस्सऽणुवघाइए।
समे अतिरे पावि, अचिरकालकमि य॥
विस्थिपणे दूरभोगाडे, नासन्ने बिलवजिए। ससाण बीयरहिए, उच्चाराईणि बोसिरे ॥
--उत्त. अ. २४, गा.१७-१८