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हुन्न ३०५
आश्रय और संवर का विवेक
चारित्राचार
[२०९
पट्टा, णो सारम्भे पट्टा णो समारम्भे बट्टा, अगा- नहीं करता एवं समारम्भ भी नहीं करता, और न ही वह जीव रम्भमाणे, असारम्ममाणे, असमारम्ममाणे, आरम्भ में, संरम्भ में एवं समारम्भ में प्रवृत्त होता है। आरम्भे अवट्टमागे, सारम्भ अवट्टमाणे. समारम्भे अषट्ट- आरम्भ, संरम्भ और समारम्भ नहीं करता हुआ तथा माणे बहूगं पाणाणं-जाव-सत्ताणं अयुक्खावणयाए जाव- आरम्भ, गरम्भ और समारम्भ में प्रवृत्त न होता हुआ जीव अपरियावणयाए बट्टइ।
बहुत-से प्राणों, भूतों, जीवों और सत्वों को दुःख पहुँचाने में - यावर--परिताप उत्पन्न करने में प्रवृत्त (या निमित्त) नहीं
होता। पल- तो जहानामा के रिसे सुखक सणहत्ययं जातयंसिप्र:-(भगवान्) जैसे. (कल्पना करो) कोई पुरुष सूखे शस
पविखवेज्जा, से नगं मंडियपुत्ता ! से सुक्के तणहत्यए के पूले (तृण के मुढे) को अग्नि में डाले तो क्या मण्डितपुत्र !
जायतेयंसि परिषत्ते समाले खिप्पामेव मसमसाविज्जइ ? वह सूखे घास का पूला अग्नि में डालते ही शीघ्र जल जाता है ? उ.- हता, मसमसाविवजह ।
उ०–हाँ, भगवन् ! वह शीघ्र जल जाता है। १०-से अहानामए के पूरिसे तत्तंसि अयधरूलसि उपबिधु प्र.-(भगवान्) (कल्पना करो) जैसे कोई पुरुष तपे हुए
पपिखवेना. से नर्ष मंडियपुत्ता 1 से उदयविद् तसंसि लोहे के कड़ाह पर पानी की बूंद डाले तो क्या मण्डितपुत्र ! तपे अयकवल्संसि पवितते समाणे थुिप्पामेध विसमा- हुए लोहे के कड़ाह पर डाली हुई वह जल-बिन्दु अवश्य ही शीघ्र गच्छह ?
नष्ट हो जाती है? जा-हंता, घिद्धसमागच्छद ।
उ. ... (मण्डितपुत्र -) हाँ भगवन् ! बह जलबिन्दु शीघ्र
ही नष्ट हो जाती है। ५०-से महानग्मए हरए सिया पुष्ण पुग्णप्पमाणे वोलट्टमाणं प्र० (भगवान्-) (मान लो) कोई एक सरोवर है, जो बोसट्टमाणे समभरघडताए चिटुति ?
जल से पूर्ण हो, पूर्णमात्रा में पानी रो 'भरा हो, पानी से लबालब भरा हो, बढ़ते हुए पानी के कारण उसमें से पानो छलक रहा हो, पानी से भरे हुए बड़े के समान क्या उसमें पानी व्याप्त हो
सकता है? उ० --हंता चिट्ठति ।
उ-हाँ, भगवन् ! उसमें पानी व्याप्त हो सकता है। प०- अहे गं केह पुरिसे तर्सि हरयति एवं मह नावं सतासवं प्र.- अब उस सरोवर में कोई पुरुष, सैकड़ों छोटे छिद्रों
सक्छिई ओगाहेग्जा, से नूर्ण मंडियमुत्ता! सा नावा वाली तथा सैकड़ों बड़े छिद्रों वाली एक बड़ी नौका को उतार तेहि आशयहारेहि आपूरेमाषो आपुरेमाणीता पुष्णा दे, तो क्या मण्डितपुत्र ! वह नौका उन छिद्रों (पानी आने के पुष्णप्पमाणा धोलट्टमाणा बोसट्टमाणा समभरघरताए द्वारों) द्वारा पानी से भरती-भरती जल से परिपूर्ण हो जाती है? चि ति?
पूर्णमात्रा में उसमें पानी भर जाता है ? पानी से बह लबालब भर जाती है.? उसमें पानी बढ़ने से छलकने लगता है ? (और अन्त में) वह (नौका) पानी से भरे घड़े की तरह सर्वत्र पानी
से व्याप्त होकर रहती है? १०-हंता चिटुति ।
-हो, भगवन् ! वह पूर्वोक्त प्रकार से जल से व्याप्त
होकर रहती है। १०- अहे गं केइ पुरिसे सोसे नाबाए सब्बतो समता आस- प्र.-- यदि कोई पुरुष उस नौका के समस्त छिद्रों को चारों
वहाराई हि पिहिता नावास्सिंचणएवं उचयं ओर से बन्द कर (क) दे, और बसा करके नौका की उलीचनी उस्सिंधिज्जा, से नणं मंजियपुत्ता ! सा नावा तसि (पानी उलीचने के उपकरण विशेष) से पानी को उलीच दे (जल जयंसि उस्सित्तसि समाणसि खिप्पामेव उई उद्दाति? को रोक दे) तो हे मण्डितपुत्र ! नौका के पानी को उलीच कर
खाली करते ही क्या वह शीन ही पानी के ऊपर आ जाती है?