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पूत्र ६८५-६९०
सभी कामभोग बुःखवायी है
चारित्राचार
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एवं कामेसनबिबू,
इसी तरह काम के अन्वेषण में निपुण पुरुष आज या कल में अन्ज सुए पयहेज संयवं। कामभोगों का संसर्ग (छोड़ने का विचार किया करता है,) छोड़ कामी कामे न कामए,
नहीं सकता । अतः कामी पुरुष कामभोग की कामना ही न करे, सवा वि अलब कई ॥ सिपाही सेाप्त हुए कामभोग को अप्राप्त के समान जाने
(यही अभीष्ट है।) मा पच्छ असाहया भवे,
मरणकाल में असाधुता (शोक या अनुताप) न हो अतः तू अच्चेही अणुसास अप्पणं । कामभोगों का त्यागकर स्वयं को अनुशासित कर (जो असाधु) अहियं च असाह सोमती,
असंयमी पुरुष होता है वह अत्यधिक शोक करता है, ऋन्दन से पणती परिदेवती बहु ॥ करता है, और बहुत विलाप करता है। इह मोवियमेव पासहर,
इस लोक में अपने जीवन को ही देख लो, सौ वर्ष की आयु तरुणए वाससबार तद्वती। वाले मनुष्य का जीवन तरुणावस्था (युवावस्था) में ही नष्ट हो इसरवासे सुजाहर
जाता है। अतः इस जीवन को थोड़े दिन के निवास के समान पिवनरा कामेसु भूमिछया ।। समझो (ऐसी स्थिति में) क्षुद्र या अविवेकी मनुष्य ही कामभोगों
---सूय. सु. १, अ. २, उ. ३, गा. २-८ में मूच्छित होते हैं। सम्वे कामभोगा दुहाया
सभी कामभोग दुःखदायी है६६. सहवं बिलवियं पौर्य, सम्वं न विम्बियं । ६८६. सब गीत (गायन) विलाप हैं, समस्त नाट्य विडम्बना से सवे आभरणा मारा, सम्ये कामा बुहावहा ।। भरे हैं, सभी आभूषण भारका है और सभी कामभोग दुःखावह
(दु.बोत्पादक) हैं। बासाभिरामेसु बुहाबहेमु न सुहं कामगुणेसु राय । अज्ञानियों को रमणीय प्रतीत होने वाले, (किन्तु वस्तुतः) विरत्तकामाण तो धणाणं, जंभिक्षुणं शीलगुणे रयाणं ॥ दुःखजनक कामभोगों में यह सुख नहीं है, जो सुल शीलगुणों में
-उत्त.अ. १३, मा. १६-१७ रल, पामभोगों से विरक्त तपोधन भिक्षुओं को प्राप्त होता है। कामभोगाभिकखी परितप्पड़
काम भोगाभिलाषी दुःखी होता है६६०. कामा पुरतिशम्मा । जीवियं दुपडियूहगं ।
६९०, ये काम दुर्मध्य है। जीवन (आयुष्य जितना है, उसे) बढ़ाया नहीं जा सकता, (तथा आयुष्य की टूटी डोरी को पुनः
सांघा नहीं जा सकता।) कामकामी खलु अयं पुरिसे से सोयति मूरति तिप्पति पिजाति पुरुष काम-भोग की कामना रखता है। (किन्तु वह परितृप्त परितपति।
नहीं हो सकती, इसलिए) वह शोक करता है (काम की अप्राप्ति तवा वियोग होने पर खिन्न होता है) फिर वह पारीर से सूख जाता है, आंसू बहाता है। पीड़ा और परिताप (पचासाप) से
दुःखी होता रहता है। आयतवक्खू सोगविपस्तो लोगस्स अहे मागं जाणति, उई दीर्घदर्शी पुरुष लोकदर्शी होता है। वह लोक के अधोभाय मार्ग जाति, सिरिय भार्ग जाणति ।
को जानता है, अठर्व भाग को जानता है, तिरछे भाग को
जानता है। गहिए अणुपरिपट्टमागे।
(काम-भोग में) गृद्ध हुआ आसक्त पुरुष संसार में (अथवा काम-भोग के पीछे) अनुपरिवर्तन-पुन: पुन: चक्कर काटता
रहता है। संधि विविप्ता इह मच्चिएहि ।
(दीर्घदी यह भी जानता है) यहाँ (संसार में) मनुष्यों के
सन्धि (मरणधर्मा शरीर) को जानकर विरक्त हो। एस वोरे पसंसिते जे बजे पडिमोयए।
यह वीर प्रशंसा के योग्य है (अथवा वीर प्रभु ने उसकी *-बा. सु. १, अ. २, उ. ५, सु. १.६१ प्रशंसा की है) जो काम-भोग में बस को मुक्त करता है।