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चरणानुयोग
७१.
राणाकाले गमविही-
तं सेवमाणे आवज्जद मासियं परिहारद्वाणं उग्घाहयं ।
सम्म, अभतो अनुष्ठियो [ग] ॥
हमेण कमजोगेण,
-नि. उ. २, सु. ३६
से गामे वा नगरे वा गोयरम्यगओ भुणो । चरे मोता ॥ पुरो जुगगाथाएगा यहि परे पोहरबाई वा महियं
।
इस. अ. ५. उ. १, गा १-३
गये सणाकाले आमरणीय- किच्चाई - ८७२. पविसित परागारं पाणट्ठा भोयणरस वा । जयं चिट्ठ मियं भासे, ण य रूवेमु मणं करे ॥
बहुं सुणे कष्णेहिं अच्छीहि पेच्छ । न यदि भिक्लू अनरिह ।
सुयं वा जइ वा दिट्ठ, न सवेज्जोवधाइयं । नय केइ उवाएणं, 'गिहिजोगं समायरे ॥
गवेषणाकाल में जाने की विधि
- दम. अ. गा. १६-२१ पेनाभिनिवे
यमक फार्स का अयाए ।
अतितिणे अचवले अप्पमासी वेन उपरे ते पोषं
मिक्लाकाले एव गमगविहाणं८७३. कालेण निक्लमे भिक्खू कालेज य पक्किमे । अकालं च विवज्जेला, काले कालं समायरे ॥
अकाने परति भिक्खुन पह अत्याचामि सच गरिहसि ॥
सूत्र ८७०८७३
उसे मासिकात परिहारस्थान (प्राणित) आता है।
गवेषणाकाल में जाने की विधि -
८७१. भिक्षा का काल प्राप्त होने पर मुनि उतावल न करते हुए. मूर्च्छा रहित होकर इस आगे कहे जाने जाने क्रम योग से भक्त पान की गवेषणा करे ।
गाँव या नगर में गोचरी के लिए निकला हुआ मुनि उद्योग रहित होकर एकाग्र चित्त से धीमे-धीमे चले |
आगे युग-प्रमाण भूमि को देखता हुआ और बीज, हरियाली प्राणी, जल तथा सजीव-मिट्टी को टालता हुआ चले ।
गवेषणाकाल में आचरणीय कृत्य -
८७२ मुनि गृहस्थ के घर में प्रवेश करके आहार या पानी लेने के लिए बनापूर्वक खड़ा रहे परिचित बोले और रूप देखने का भी मन न करे ।
शुकानों से बहुत सुनता है. वों से बहुत देखता है, किन्तु सब देखा और गुना अन्य तिथी को कहना उचित नहीं होता है।
युनी हुई ना देखी हुई घटना के बारे में आपाततरने वाले वचन न कहे और किसी भी प्रकार गृहस्थों जैसा आच रण न करे।
-दस. अ. गा. २६ मियासणे ।
सिए ।
(साधु बाहार न मिलने या मोर बाहार मिलने पर गुस्से में आकर ) तनतनाहट ( प्रलाप) न करे, चपलता न करे, अल्प- दस. अ. गा. २६ भाषी, मितभोजी और उदर का दमन करने वाला हो 1 (आहारादि पदार्थ) मोहा पाकर (वाता की निन्दान गरे। भिक्षाकाल में ही जाने का विधान
कानों के लिए सुखकर शब्दों में प्रेम स्थापन न करे, दारुण और कर्कश स्पर्श को काया से (समानपूर्वक) सहन करे ।
८७३. भिक्षु भिक्षा लाने के समय पर भिक्षा के लिए निकले और समय पर ही लौट आये। अकाल को वर्जकर जो कार्य जिस समय करने का हो, उसे उसी समय करे ।
भिक्षो ! तुम अकाल में जावोगे और काल की प्रतिलेखना नहीं करोगे तो तुम अपने आप को क्लान्त ( खिन्न ) करोगे और सनिवेश (ग्राम आदि) की निन्दा करोगे ।
१ (क) तड़वाए पोरिसिए, भत्तपाणं वेसाए
- उत्स. अ. २६ गा. ३२
(ख) प्राचीन काल में भोजन का समय प्रायः अपरान्ह ही था, ऐसा कई कहते हैं किन्तु आगमों में प्रातःकाल के भोजन के उल्लेख मिलते हैं, यथा
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