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सूत्र ८६८-८७०
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स्वजन के घर पर अकाल में जाने का निषेध
सेो विदुरमाउलाई को पडिगाहित्तए ।
तर से पुयागमण दोष छाई एवं नीति योनि पडिगाहिए।
जे से तत्थ पुण्यागमणेणं पुख्वाउते से कप्पड़ पविगाहित्तए । जे से तस्य पुष्वागमणेणं पच्छाउते नो से कप्पड़ पडिगा हित्तए । - वव. उ. ६, सु. ४-६
रूपकुण
८६९. से भिक्खू वा भिक्खुणी चा समाणे वा, वसमाणे था, यामामा दजमार्थ या से जागा
हायवा ।
हमंसि खलु गामंसि वा जाव- रायहाणिसि संतेगतियस्स क्रिस रेया या पच्छाया था परिवल
नहानाहातोय-कम्मकरी या
पुरा पेहाए तस्स अट्टाए परो असणं वा जाव-साइमं वा उबकरेज्ज वा. उबक्लज्ज वा ।
अहो
एस पतिया एव हेतु एस ब जं जो तहपगाराहं कुलाई पुष्णामेव मत्ताए वा पाणाए वा, जिक्स मेज्ज वा पविसेज्ज था । सेलमावाए एवंभवक्रूज एगतमपत्रवित्ता-अनावादमसलोए चिट्ठ ज्जा ।
से तस्थ कालेणं अणुपविसेज्जा अणुपविसिता तत्थितर तरेहिं फुलेहि सामुदाणियं एसियं वेसियं पिंडवायं एसित्ता आहा आहारा
- आ. सु. २, अ. १, उ. ६, गु. ३९९ सजण परिजण गिहे अकाले गमरायच्छित सुतं
८७०. जे भिक्खू समाणे वा बसमाणे वा, गामाणुगानं इज्जमाणे वा. पुरे संधुइयाणि वा, पच्छा संयुइयाणि वा कुलाई पुष्षामेव भिवपरिवार अणुपविस अनुपवितं वा साइ
दसाद. सु. ४१-४३
चारित्रवार एवणा समिति
[५४३
हत्याराकुलाई को मुख्यामेव मत्ता वा पाणाए वा श्रद्धालुजन रहते हैं तो इस प्रवर के परों में भिक्षा से पूर्व णिक्यमेज्ज वर, पविसेज्ज या ।
बाहर पानी के लिए
केवलो वृया - आयाणमेयं ।
प्रवेश न करे। केवली भगवान् ने कहा है- "यह कमों के आने का कारण है।"
क्योंकि समय से पूर्व अपने घर में साधु या साध्वी को आए देखकर वह उसके लिए अशन -- यादत् – स्वादिम बनाने के लिए सभी साधन जुटाएगा, अथवा आहार तैयार करेगा ।
अतः भिक्षुओं के लिए तीर्थंकरों द्वारा पूर्वोपदिष्ट यह प्रतिज्ञा है, यह हेतु है, यह उपदेश है कि वह इस प्रकार के घरों में आहार पानी के लिए भिक्षाकान से पूर्व निष्यण प्रवेश न करे ।
आगमन से पूर्व दाल और चावल दोनों रंधे हुए हो तो दोनों लेने कल्पते है ।
किन्तु बाद में रंधे हो तो दोनों लेने नहीं कल्पते हैं ।
( तात्पर्य यह है कि ) आगमन से पूर्व जो आहार अग्नि आदि से दूर रखा हुआ हो वह लेना कल्पता है और जो आगमन के बाद में अग्नि आदि से दूर रखा गया हो वह लेना नहीं कल्पता है ।
स्वजन के घर पर अकाल में जाने का निषेध -
८६६. भिक्षु या भिक्षुणी स्थिरवास रहे हों, मासकल्प आदि रहे हो या धामनुधान विचरण करते हुए पहुंचे हो वे उस ग्राम - यावत् - राजधानी के सम्बन्ध में जाने कि
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इस गांव में पावत् राजधानी में किसी एक भिक्षु के पूर्व-परिचित (माता-पिता आदि) या नात् परिचित (मासुससुर आदि ) गृहस्वामी — यावत् — नौकर-नौकरानियाँ आदि
यह परिचित घरों को जानकर एकान्त स्थान में चला जाए, वहाँ जाकर जहां कोई आता-जाता और देखता न हो, ऐसे एकान्त स्थल में खड़ा हो जाए ऐसे स्वजनादि के ग्राम आदि में भिक्षा के समय पर ही प्रवेश करे और अन्य अन्य घरों से सामुदानिक एषणीय तथा साधु के बंध से प्राप्त निर्दोष आहार प्राप्त करके उसका उपभोग करे ।
स्वजन परिजन के पर असमय में जाने का प्रायश्चित सूत्र
८७०. जो भिक्षु स्थिरवास ग्रामानुग्राम विचरण करते मसुर कुलों में भिक्षा करवाता है या प्रवेश करने
रहा हो मासकल्प आदि रहा हो या हुए पहुँचा हो वहाँ मातृकुलों में या से पूर्व ही प्रवेश करता है, प्रवेश वाले का अनुमोदन करता है।