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चरणानुयोग
पिहूयं वा-जाद - ताउलपलंबं या असई भज्जियं, दुक्खुतो या जयंतसुतो वा भनि कार्यान पडि - आ. सु. २, अ. १. उ. १. सु. ३२६ अपरिणय-परिणय-तालपर ग्रहण विहि-विसेो६२. नो कप निम्नथाण वा निमगंधीण वा आमे तासलंबे' भने पहिए।
hous निग्ाण वा निमगंयोग वा आमे ताल-लम्बे मिले हिए।
sere निधाणं पक्के ताल-लम्बे भिन्ने वा अभिन्ने वा पहिल
नो कप्पड़ निग्गंथोण पक्के-ताल- पलम्बे अभिन्ने परिणा हिए।
कम्पनियो के ताल-लम्बे भन्ने पडिनाहिए।
मेसे
अपरिणत- परिणत ताल प्रबंध के ग्रहण कर विधि निषेध
अपरिणय-परिचय-अंब-स विहिते
६३. से भिक्खु वा भिक्खुणी या अभिकंसेज्जा अंबवणं उवातिसरे सहा ते ओहं
अगुणवेा ।
"काम ! अहा जाब – माउसो—जाब - आवसंतस्स सानिया एतावता विहरिस्सामो।"
प०--से कि पुण तस्थ ओग्यहंसि एवोग्यहियंसि ?
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अहापरिणाय बता
ओहो — जावहंगामो तेण परं
० मह भिक्वामोए से जाणेज्जा
सखंड - जाव - मक्कडासंताणगं तहष्पगारं अंयंअफासुपं जाव णो पहिगाहेज्जा । सेवाभिपोवा से
अप्प जाद मक्कडासंचागगं,
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ताल फल ग्रहण करना करुपता है ।
वह भी विधिपूर्वक भित्र अर्थात् अत्यन्त छोटे-छोटे स कप्प. उ. १, सु. १-५ किये हों तो ग्रहण करना कल्पता है अविधि - भिन्न ग्रहण करना नहीं कल्पता है ।
अपरिणत परिणत आम ग्रहण का विधि निषेध
जाना-अतिरिच्छछिन्न
अजाबो परिणाज्या |
सूत्र ६६१-९६३
आदि
आदि
बनेक
बार अर्थात् दो बार या तीन बार भुने हुए हैं तो उन्हें झाक जानकर यावत् ग्रहण करे ।
परिण परिणताल प्रबंध के ग्रहण का विधि निषेध६२. नित्य और निर्ग्रन्थियों को अभिन्न (अस्त्रपरिणत ) बच्चा ताल फल ग्रहण करना नहीं कल्पता है। और निर्वाचियों को मिश्र (
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कच्चा ताल फल ग्रहण करना कल्पता है ।
निर्ग्रन्थों को भिन्न ( लण्ड-खण्ड) किना हुआ या अभिन (अखण्ड) पत्र (अचिन) ताल फल ग्रहण करना कल्पता है । किन्तु निर्ग्रन्थियों को अभिन्न (अखण्ड पक्त्र (अचित्त) ताल फल ग्रहण करना नहीं कल्पता है।
कोड किया हुआ
९६३. भिक्षु या भिक्षुणी (बिहार करते हुए आयें और आम्रवन के समीप यदि ठहरता चाहें तो उस स्थान के स्वामी की संरक्षक की आज्ञा प्राप्त करें ।
"हे आयुष्मन् ! आप जितने स्थान में जितने समय तक ठहरने की आज्ञा देंगे हम और हमारे आने वाले स्वधर्मी उतने ही स्थान में इतने ही समय हम ठहरने बाद में विहार कर देंगे ।"
प्र० - वे भिनु या भिक्षुणी आम खाना चाहें तो आम की एषणा) किस प्रकार करें
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उ०- यदि वे आम खाना चाहें तो वे यह जानें कि
आम, अण्डे यावत् मकड़ी के जालों से युक्त है तोऐसे आम को अप्रासु जानकर यावत् — प्रहण न करें। भिक्षु वा भिक्षुणी यदि यह जाने कि
आम, अण्डे यावत् - मकड़ी के जालों से रहित है किन्तु तिरछा कटा हुआ नहीं है तथा जीव रहित नहीं हुआ है,
अतः ऐसे आम को अाक जानकर - यावत् ग्रहण न करे ।
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ताल अलंब शब्द का अर्थ भाष्य में फल, मूल, कंद आदि सभी प्रकार की वनस्पतिपरक किया गया है। विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखें बृहत्कल्पभाष्य गाथा – ८४७ से ८५७ ।