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सूत्र १०००.
ऊस में सकार भार करने की विधि
पारित्राचार : एषणा समिति
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तत्व से मुंजमाणस्स, अट्टियं कंटओ सिया।
वहां भोजन करते हुए सुन के आहार में गुठली, कोटा, तण कटु-सक्करं वा वि, अन्नं वा वि तहाविहं ॥ तिनका, काठ का टुकड़ा, कंकड़ या इसी प्रकार की कोई दूसरी तं उपितषित्तु न निक्तिवे आसएग न जुए। वस्तु निकले तो उसे उठाकर न के, मुंह से न के, किन्तु हाथ हरण तं गहेऊण. एगंतमवक्कमे ॥ में लभर एकान्त में जाकर अचित्त भूमि को देखकर, यतनापूरक एगंतमधषकमित्ता, अचित्तं पडिले हिया ।
उसे रख दे और बाद में स्थान में जाकर प्रतिक्रमण करे । जयं परिवेजा, परिदृप्प पडिक्कमे ।।
-देस. अ५, उ. १, गा, ११३-११७ सेज्जामागम्म आहार करणस्स विहि ...
उपाश्रय में आकर आहार करने की विधि*१. सिया य भिक्खू इच्छेज्जा, सेन्जमागम्म भोत्तुयं । १. कदाचित् भिक्षु उपाधय में आकर भोजन करना चाहे तो
सपिंडपायमागम्म, अयं पडिले हिया ॥ भिक्षा सहित वहाँ आकर स्थान की प्रतिलेखता करे। विणएण पबिसित्ता, सगासे गुरुणो मुणी । उसके पश्चात् मुनि विनयपूर्वक गुरु के समीप उपस्थित इरियाबहियमायाय, आमओ य परिषकमे ॥ होकर "ईपिथिकी सूत्र'' को पढ़कर प्रतिक्रमण (कायोत्सर्ग। करे । आमोएसाण नीसेस, भयारं जहफ्कम । आने-जाने में और भक्त-पान लेने में लगे समस्त अतिचारों गमणाममणे चेब, भत्त-पाणे व संजए॥ को यथाक्रम में याद करे । उज्जुप्पो अणुम्विग्गो, अम्विक्वित्तेण चेषसा । सरल, बुद्धिमान और उदे ग रहित मुनि एकाग्रचित्त से आलोए गुरुसगासे, जं जहा गहियं भवे ॥ जिस प्रकार शिक्षा ग्रहण की हो वैसे ही गुरु के समीप आलोचना
करे। न सम्ममालोइमं होज्जा, पुब्बि पच्छा पजं कर्ड। पूर्व कर्म, पश्चात् कर्म आदि अतिचारों की यदि सम्यक पुणो पडिक्कमे तस्स, बोसट्ठो चितए इमं ॥ प्रकार से आलोचता न हुई हो तो उसका फिर प्रतिक्रमण करे
तमा मायोत्सर्ग करके यह चिन्तन करेअहो जिणेहि असावज्जा, वित्ती साहूण वेसिया । 'अहो. जिनेन्द्र भगवंतों ने मोक्ष-साधना के हेतु-भूत शरीर मोक्लसाहेजस्स, साहुरेहस्स धारणा ॥ को धारण करने के लिए माधुओं को निरवध (भिक्षा) बृत्ति का
उपदेश दिया है।" नमोक्कारेण पारेत्ता, करेता जिणसंभव । (इस चिन्तनमय कायोत्मगं को) नमस्कार मन्त्र के द्वारा समायं पट्टवेत्ताणं, वीसमेज खणं मुगौ। पूर्ण कर तुविशतिस्तव (लोनस्स) का पाठ बोले, फिर स्वाध्याय
करे, उसके बाद, कुछ विश्राम ले । पोसमतो इमं चिते हियभट्ठे लाभमट्टिी। विधाम करता हुआ लाभार्थी मुगि अपने हित के लिए इस "जइ मे अणुग्गहं कुज्जा साह, होज्जामि तारिओ।" प्रकार चिन्तन करे कि- "यदि कोई साधु मुझ पर अनुग्रह करे
तो मैं तिर जाऊँ।" साहवो तो चियत्त, निमंतेज्ज नहक्कम ।। ___वह प्रेम पूर्वक साधुओं को यथाक्रम से निमन्त्रण दे। उन जइ तत्य केह छेज्जा, तेहिं सखि तु भुंजए॥' निमन्त्रित साधुओं में से यदि कोई साधु भोजन करना चाहे तो
उनके साथ आहार करे। . - (शेष पिछले पृष्ठ का) में "संपज्जिकण ससीसं काय तहा करतल" ऐसा पार है। इसमें भी करतल का स्पष्ट कथन है । दशकालिक की अगन्त्यसिह कृत चूर्णी में भी 'ससीसोवदिवं हस्तं तं" सूचित करके प्रश्नव्याकरण के पाट का ही अनुसरण किया है।
___ अतः यहाँ "मुखवस्त्रिका से शरीर का प्रमार्जन करके बाहर करना" ऐसे अर्थ को कल्पना करना प्रश्नव्याकरण मूत्र के मूल पाठ से विपरीत है अतः उचित नहीं कहा जा सकता 1 प्रमार्जन के लिये प्रमानिका (गोच्छग) व रजोइरण ये दो उपकरण
हैं। मुखबस्त्रिका नहीं है। * यहाँ से सूत्र संख्या १००१ क्रमानुसार समझें । प्रेस की सुविधा के कारण १००० सूत्र के बाद ! क्रमांक दिया है। -सम्पादक १ दस. न. १०, गा. ।