Book Title: Charananuyoga Part 1
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 661
________________ सूत्र ६४.६५ अप्रामुक पानी लेने का निषेध धारित्राचार : एषणा समिति [६२६ अफासुग पागंग गहण णिसेहो अप्रासुक पानी लेने का निषेध६४. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा गाहाबइकुलं पिंडवायडियाए ६८. गृहस्थ के यहाँ गोचरी के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुगी अणुपवि? समाणे से ज्ज पुण पाणगजाय जाणेरजा- यदि पानी के विषय में यह जाने कि- गृहत्य ने प्रासुक जल को अर्णत रहियाए पुरवोए-जाव-मफडा-संलाणए ओहद् सचित्त पृथ्वी के निकट - पावत् --मकड़ी के जालों से युक्त स्थान णिक्विते सिया। पर रखा है। अस्संजते भिक्षुपडियाए उदउल्लेण वा, ससणिलंग वा. अथवा अईयत गृहस्थ भिक्षु को देने के उद्देश्य से सचित्त सकमाएष वा मसेण, सीतोदएण वा संभोएत्ता, आहट्ट जल से गीला अथवा स्निग्ध या सवित्त पृथ्वी आदि से युक्त बर्तन बलएम्जा। तहप्पणारं पाणगजाचं अफामयं-जावणो पडिगा- से लाए या प्रासुफ जल के साथ सचित्त उदक मिलाकर लाकर हेज्जा आ. सु. २. अ० १. उ०७, सु० ३७१ दे तो उस प्रकार के जल को अप्रासुक रानकर-पावत्-ग्रहण न करे। से भिक्खू वा भिक्खूणी वा गाहावद कुलं पिण्डवायपडियाए गृहस्थ के घर में गोचरी के लिए प्रविष्ट भिक्षु या भिक्षुणी अणुपविट्ठ समाणे से जं पुण पाणगजाय जाणेउजा, तं यदि इस प्रकार का पानी जाने, जैसे कि ७. अंबपाणग वा, ८. अंबाडगपाणगं वा, (७) आम्रफल का पानी, (८) अम्बाहर फल का पानी, ६. कविट्ठपाणगं वा १०. माडलिंगपाणगं वा, (६) कपित्थ फल का पानी, (१०) बिजीरे का पानी, ११. मुहियापाणगं वा, १२. वासिमपाणगं वा, (११) द्राक्ष का पानी, (१२) दाडिम का पानी, १३. खजूरपाणगं वा, १४. णालिएरयाणगंदा, (१३) खजूर का पानी, (१४) नारियल का पानी, १५. करीरपाणगं था, १६. कोलपाणगं वा, . (१५) करीर (कर) का पानी, (१६) बेर का पानी, १७. आमलगपाणगं था, १५. चिचापाण वा, (१७) आंवले के फल का पानी, (१८) इमली का पानी, अण्णतर वा तहप्पणारं पाणगजायं सदियं, सफणु, इसी प्रकार का अन्य पानी, जो कि गुठली सहित छिलके सबीयगं, अस्संजए भिक्षुपरिवाए छक्वेण वा, सेण या, आदि अवयव सहित य. बीज सहित है और गृहस्थ साधु के बालगेण था, आबोलियाण वा परिपीलियाण वा, परिस्साइ- निमित्त बाँस की छबजी से वस्त्र से छलनी से एक बार या बारयाण वा. आहट्ट बलएज्जा । तहप्पगारं पाणग्रजायं अफा- बार छानकर या नितारकर (उसमें रहे हुए बीज, गुठली आदि सुयं-जाव-गो एडिमाहेजा । अपयव को अलग करके लाकर देने लगे तो इस प्रकार के जल -आ. सु. २, अ. १, उ. ८. सु. ३७३ को अप्राक जानकर-यावत्-ग्रहण न करे। सहसा दत्त सचित्तोदय परिवण विही असावधानी से दिए हुए सचित्त जल के परटने की विधि६५. से मिक्खू बा भिक्खूणी वा गाहावइकुल पिण्डवायपडियाए ६५, भिक्षु या भिक्षुणी गृहस्थ के यहाँ गोचरी के लिए गमे हों अणुपबिटु समाणे-सिया से परो आहटु अंतो पडिग्गहंसि और गृहस्थ घर के भीतर से अपने पात्र में अन्य बर्तन से सचित्त सीमोरगं परिभाएता गोहद क्लएज्जा, तहप्पगारं पडिग्गहं जल निकाल कर लावे और देने लगे तो साधु उस प्रकार के परहत्यसि बा, परपायत्ति वा अफासुयं-जाव-यो पडिगा- पर-हस्तगत एवं पर-पात्रगत सचित्त जल को अप्रासुक जानकर हेज्जा । -यात्रत्- ग्रहण न करे। से य आहज्च पडिमाहिए लिया, खिप्पामेव उदगंसि साह- कदाचित् असावधानी से बह जल ले लिया हो तो शीत्र रेजा, सपडिगहमायाए वा, पाणं परिटुवेज्जा ससणिवाए दाता के जन-पात्र में उडेल दे । यदि गृहस्थ उस पानी को वापस वा भूमिए णियमेग्जा। न ले तो जलयुक्त पात्र को लेकर परठ दे या किसी गीली भूमि में उस जल को विधिपूर्वक परिष्ठापन कर दे। (उस जल के गोले गार को एकान्त निर्दोष स्थान में रख दे।)

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