Book Title: Charananuyoga Part 1
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 674
________________ ६४२ ] चरणानुयोग ww नित्य-निधियों के लिए अकल्प्य उपाश्रय मक्खेति वर णो पण्णस्स विखमण-पवेसाए जाब-चिलाए, से एवं जत्रा तत्पगारे उबस्सए जो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहिये वा चेतेज्जा । -- आ. सु. २. अ. २. व. २, सु. ४४७ सेभिक्खु वा भिक्खुणी वा से ज्जं पुण उतस्सर्व जाणेज्जरगाहातिकुलसमझेणं गंत्तुं बस्थए, पडिबद्ध वा णो पण्णस्स क्खिमण पचेसाई-जाब चिताए से एवं तहप्पगारे उस्सए णो ठाणं वा सेज्जं वा, णिसोहिपं वा चैतेज्जा । -- आ. सु. २, अ २, उ. ३, सु४४६ fort या भिक्खुणी वा से वजं पुण उवस्यं जाणेज्जा-दह आ. सु. २, अ. २. उ. ३. सु. ४५० सेभिक्खू व भिक्षी या से उपजामे खलु गाहावती वा जात-कम्मकरीओ वा अण्णनण्णस्स गायं सिणाणेण वा कण वा जाव-पउमेण वा भाधनंति वर पसंति वा उच्चलेति वा उयोंति वा णो पण्णस्स निक्मण पसाए-जावता एवं मया तहारे से पच्चा उवस्सए णो ठाणं वा सेज्जं वा णिसीहिये या चेतेक्ज़र । - आ. मु. २, अ. २, उ. २, सु. ४५१ से भिक्खू वा भिक्खूणी वा से ज्जं पुण उवस्सयं जाणेज्जा- भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐसे उपाय को जाने कि जो गृहस्थों ससागरियं सागणियं सउदयं णो पण्णस्स णिक्षमण से संसक्त हो, अग्नि से मुक्त हो, जन से युक्त हो तो बुद्धिमान् साधु वेखाएको पन्नस्तदाय-पृष्ठ-परि-मीनियन-प्रवेश करता एक्स नहीं है और न ही ऐसा उ उचित योगचिताए । से एवं गच्चा तत्पगारे उस्सए जो डा वाचना, पूच्छा परिवर्तना, अनुप्रेक्षा और धर्मानुयोग चिन्तन के वापर वा लिए उपयुक्त है। यह जानकर साधु ऐसे उपाश्रय में कायोत्सर्ग, य्या और स्वाध्याव न करे । भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने कि जिसमें निकाश करने पर गृहस्य के घर में से होकर जाना आना पड़ता हो, अथवा जो उपाश्रय गृहस्थ घर से प्रतिबद्ध ( संलग्न) है, यहाँ प्राज्ञ साधु का आना-जाना — यावत् चिन्तन करना उचित नहीं है यह जानकर ऐसे उपाश्रय में साधु स्थान, शय्या और स्वाध्याय न करे । भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने कि वहाँ गृहस्वानी यावत्-नौकरानियां परस्पर एक दूसरे के शरीर को प्रासुक शीतल जन या उष्ण जल से धोती है। बार बार धोती है। सींचती है या स्नान कराती है, तो ऐसा स्थान बुद्धिमान साधु के जाने-आने — यावत् — धर्मचिन्तन के लिए उपयुक्त नहीं है। यह जानकर इस प्रकार के उपाश्रय में साधु स्थान, शस्या एवं स्वाध्याय न करे । माहावती वा जाव-कम्मकरीओ वा अण्णमरणस्स गायें, सीतोगविद्वेण वा उसिनोषत्रिय डेण वा उच्छोलेति का पघोषैति वा, सिवंति या सिणावेति वा णो पण्णस्स freeमण पसाए जाव- चिताए से एवं tear तपगारे उणी ठाणं या सेज्जं वा पिसीहियं वा तेज्जा । अ. सु. २, अ. २. उ. ३. सु. ४५२ सेवा क्या मेवं पुरा उस्ता इह खलु माहावती वा जान-कम्मकरीओ वा, निगिया ठिला. विविणा वालीणा घेतु विष्णवेति रहसि या मंत मंतति णो पष्णरव निवस्वमण-पवेसाए जाव-बिताए से एवं बच्चा तहष्वगारे उबस्सए णां ठाणं वा सेवा, निसा । सूत्र ८४ - आ. सु. २, अ. २, उ. ३, सु. ४५३ सेभिक्खू या भिक्खुणी वा से ज्जं पुण उवस्यं जाणेज्जाआइष्णं संविधं जो पतनपान बिताए एवं उत्सवो या, साधु का वह आना-जाना — यावत् प्रमंचितन करना उचित नहीं है, यह जानकर साधु उस प्रकार के उपाश्रय में, स्थान, शय्या एवं स्वाध्याय न करे । भिक्षु भिक्षुणी यदि ऐसे उपाय को जाने कि वहाँ गृह स्वामी- यावत्-नौकरानियों परस्पर एक दूसरे के शरीर को स्नान (सुगंधित द्रव्य ससुदाय ) से, कल्क से- यावत् - पद्मचूर्ण से मलती है, रगड़ती है, मैल उतारती है, उबटन करती है, वहाँ साधु का निकला या प्रवेश करता यावत्-धर्मवित आज करना उपयुक्त नहीं है। यह जानकर ऐसे उपाश्रय में साधु स्पान, शय्या एवं स्वाध्याय न करे । यानी नदि ऐसे उपाय को जाने कि जहां ह पलि— यावत्-नौकरानियाँ आदि नग्न खड़ी रहती हैं या बैठी रहती है और नग्न होकर मे मन्धर्म विषय परस्परप्रार्थना करती है, अथवा किसी रहस्यमय अकार्य के सम्बन्ध में गुप्तमंत्रा करती है, तो प्राज्ञ साधु का निर्गमन प्रवेश यावत्धर्म चिन्तन करना उचित नहीं है। यह जानकर इस प्रकार के उपाश्रय में साधु स्थान, माय्या एवं स्वाध्याय न करे । भिक्षु या भिक्षुणी यदि ऐसे उपाश्रय को जाने कि वह स्त्रीपुरुषों आदि के चित्रों से सुसति है तो ऐसे उपाय में प्र साधु को नियंनवेज करना वात् धर्मन्निकर

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