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चरणानुयोग
प्राणियों से युक्त आहार के परिभोग और परिष्ठापन की विधि
आउसोत्ति वा ! भणित्ति वा । हम कि हे जाणया दिन, उया अजायणा ?
" से य भणिज्जा" नो खलु मे जाणयर विश, बजायणा दिन ।
काम खलु आउसो ! हयाणि निसिरामि त भुंजह वा गं. परवा तं परेहि समयायं समसत जयामेवभूमिवर प
जं च नो संचा एक भीत्तए वा पायए वा साहम्मिया तत्थ वसंत, संभोइया समणुष्णा, अपरिहारिया अदूरगया सि अणुःपदायश्वं सिया
कीर सहेब
- आ. सु. २, ब. १, उ. १०, मु. ४०५
मो जत्य साहमिया हेमपरिजा काण्वं सिवा । पाणाइ संसत आहाररस परिभोषण-परिदृवण विही
१९. निम्गंथरस य गाहाबडकुलं दिडवायपडियाए अणुप्पविटुस्स अंतोडिग्स पाणाणि था, बोयाणि वा रए वा परिया जेज्जा तं च संचाए विगिचित्तए वा विसोहित्तए वर तं त्वामेव विगिलिय विसोहि त संजय वा, पोएन्ज वा ।
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नो संचाए विगवित्तए था. विसोहित या नो अपनो
दुसया ।
काप्प उ ५ सु ११ उदगाइ- संसत्त-भोयणस्स परिभोयण-परिदूषण-विहि
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सूत्र १८-२१
"हे आयुष्मन् ! या हे भगिनी ! क्या यह लवण जानते हुए दिया है या अनजाने में दिया है ?"
२०. नवरा अविरत तो परिमहंस दए था. दगरए वा दगफुसिए बा. परिया उपभोगनाए परिभोदया। सजाए भोजे मो परिदावए एगते फासुए थंडिले पचिलेहिता पद्मञ्जिता, वेयवे सिया । - कम्प. उ. ५. सु. १२ अलि असज्जि आहारस्म परिक्षण बिही२१. पिडिए
अरे अचित्ते असगिज्जे पाणपोषणे पडिगाहिए सियाअस्थिय इत्थ के रोहतराए अणुवट्टावियए, कप्प से तरस दार्ज या, अणुष्पदाउ वा ।
नरिथ य इत्य के मेहतराए अणुवट्टावियए तं नो अपना मुंजेज्जा, नो अन्नेति बावए एगन्ते बहुफासुए पएसे पडिहिता मज्जित्ता परिवेयध्वे सिया । कप्प उ. ४, सु. १८
वह गृहस्थ कहे कि "मैंने जानते हुए नहीं दिया है किन्तु अनजाने में दिया गया है।"
"हे आयुष्मन् श्रमण ! अब मैं यह आपको देता हूँ आप व स्वेच्छानुसार लायें या आप में बट में" इस प्रकार गृहस्थ से आशा प्राप्त होने पर वतनापूर्वक खाए पीए ।
यदि वह सम्पूर्ण लवण खाया पीया न जा सके तो वहाँ समीप में ही जो साथमिक साभोगिक (सननोज) अपारिहारिक श्रमण हो तो उन्हें दे देवे ।
जहाँ साधर्मिक साधु रामीप न हो तो, आहार बढ़ने पर जिरा प्रकार आगम में परठने की विधि कही गई है उसी के अनुसार परठ दे ।
प्राणियों से युक्त आहार के परिभोग और परिष्ठापन की विधि..
१६. गृहस्थ के घर में आहार के लिए अविष्ट हुए साधु के पात्र में कोई प्राणी, बीज या सचित्त रज पड़ जाय, यदि उसे पृथक किया जा सके तो और विशोधन किया जा सके तो उसे पहले ही करके विशेधन करके नापूर्वक खाने वा पोले ।
यदि उसे पृथक करना और आहार का विशोधन करना सम्भव न हो तो उसका न स्वयं उपभोग करे और न दूसरों को दे. किन्तु एकान्त और अत्यन्त प्रानुक स्थंडिल भूमि में प्रतिलेखन प्रभाजन करके पर दे ।
उदकादि से युक्त आहार के परिभोग और परिष्ठापन की fafu
२०. हरण के घर में आहार पानी के लिये प्रविष्ट सा के पात्र में यदि सचित्त जल, जलबिन्दु जलकण गिर पड़े और आहार उष्ण हो तो उसे खा लेना चाहिए ।
वह आहार यदि शीतल हो तो न खुद खान, दूसरों को दे किन्तु एकान्त और अत्यन्त प्रासूक स्थंडिल भूमि में परद देना चाहिए |
अचित्त धनेषणीय आहार के परटने की विधि-२१पर के आहार के लिए प्रष्ट के द्वारा अचित्त और अनेषणीय आहार ग्रहण हो जाय तो यदि वहां जिसकी बड़ी दीक्षा नहीं हुई ऐसा नवदीक्षित साधु हो तो उसे वह बहार देना कल्पता है ।
यदि अनुपस्वापित शिष्य न हो तो न स्वयं खाना चाहिए और न अन्य को देना चाहिए किन्तु एकान्त और अचित्त स्थंडिल भूमि का प्रतिलेखन और प्रमार्जन कर परठ देना चाहिए।