________________
सूत्र १२०
(E) अभिसि दो
अणिसिद्ध आहार ग्रहण विहि जिसेहो
६२० से मि वा विणू वा माहालकुल
ना पडवा अनुपविट्ठे समाने से ज्जं पुण जाणेज्जा असणं वा जाव साइमं वा परं समुद्दिस बहिया णी तं परेहि असम नातं अणिसिद्धं अफा सुयं जाव णो डिगाज्जा । तं परेहि पयातं सम्मानिवि कार्य-ज-परिमा हेगा। - आ. सु. २. अ. १, उ. ६, सु. १६७ (१) एव तत्व नियंत विमान से लेह ॥
--
अनिष्टाहार पहण करने का विधि निषेध
7
सोलह उत्पवन दोष
दोन्हं तु मुंजमाणावं, बोवि तत्थ निमंतए । विजमाणं पडिन्छेज्जा, जं तत्येक्षणियं भये ॥"
इस. अ. ५,०१, गा. ५२-५३
चारित्राचार एवा समिति [५६३
(१) अनिष्ट दोष
अनिसुष्ट आहार ग्रहण करने का विधि निषेध
१२०. या भिक्षुणी गृहस्थ के घर में हार के लिए प्रवेश करने पर वह जाने कि—- अशन — यावत् स्वादि अन्य किसी को देने के लिए निकाला है, वह आहार उनकी आज्ञा के बिना या उनके दिये बिना अप्रासुक जानकर यावत्-ग्रहण न करे ।
वह आहार उनकी आज्ञा मिलने पर या उनके द्वारा दिये जाने पर प्राक जानकर - यावत्---ग्रहण करे ।
दो स्वामी या भोक्ता हों और उनमें से एक निमन्त्रित करे तो मुनि वह दिया जाने वाला आहार न ले। दूसरे के अभिप्राय को देखे – उसे देना अप्रिम लगता हो तो न ले और प्रिय लगता हो तो ले ले ।
दो स्वानी या भोक्ता हों और दोनों ही निमन्त्रित करें तो मुनि उस दीयमान आहार को यदि वह एषणीय हो तो ले ले ।
उत्पादन दोष—५
[ प्राक्कथन ]
श्राई दुई निमित्ते, आजीव वणीम तिमिन्द्रा य । कोहे माथे माया, लोभे य हवंति इस एए ॥। १॥ पुचि पच्छा संभव दिज्जा मंते य चुष्ण जोगे य । उप्पायणाइ दोसा, सोलसमे मूलकम्मे य ॥ २ ॥
- पिण्ड नि. गा. ४०८-४०६
(१) धात्री - धाय के समान बालक बालिकाओं को खिला-पिलाकर या हंसा रमाकर आहारादि लेना । (२) सूती - द्रुती के समान इधर-उधर की बातें एक दूसरे को कहकर अथवा स्वजन सम्बन्धियों के समाचारों का आदानप्रदान करके आहारादि लेना ।
(३) निमित्त -- ज्योतिष आदि निमित्त शास्त्रों के अनुसार किसी का शुभाशुभ बताकर आहारादि लेना ।
(४)
आदि की प्राप्ति के लिए दीक्षित होने से पूर्व के जाति कुन बताना दीक्षित होने के बाद क बताना तथा गृहस्थ जीवन में जिस कर्म या शिला में निपुणता प्राप्त की हो उस कर्म या शिल्प के प्रयोग किसी को आजीविका के लिए बताना ।
(५) वनोपकदान का महत्व बताकर वा दाता की प्रशंसा करके आहारादि लेना ।
(६) चिकित्सा- रोगादि निवारण के प्रयोग बताकर आहारादि लेना ।
(७) को कुपित होकर आहारावि सेना या लाहारादि न देने पर भाग देने का भय दिखाकर आहारदिना ।
(८) मान - अपने जाति कुल आदि का गौरव बताकर बाहारादि लेना ।
(६) माया छल का प्रयोग करके आहारादि लेना ।
(१०) लोभ - सरस आहार के लिए अधिक घर घूमना ।
१ (क) दसा. द. २. गु. २
(ख) मुनि को वस्तु के दूसरे स्वामी का अभिनाय नेत्र और मुखाकृति के चढ़ाव उतार से जानना चाहिए ।