Book Title: Charananuyoga Part 1
Author(s): Kanhaiyalal Maharaj
Publisher: Agam Anuyog Prakashan

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Page 609
________________ सूत्र ६५३-६५६ भशस्त्रपरिणत उत्पलादि के ग्रहण का निषेध चारित्राचार : एषणा समिति [५७७ असत्थपरिणयाणं उप्पलाईणं गहणिसेहो अशस्त्रपरिणत उत्पलादि के ग्रहण का निषेध६५३. से भिक्खू वा, भिश्वणी वा गाहावहफुलं पिटवायपडियाए ६५३. गृहस्थ के यहाँ आहार के लिए प्रविष्ट भिक्ष या भिक्षणी अणुपविढे समागे से जं पुण जाणेज्जा, सं जहा- यह जाने कि१. उप्पल वा, २. उप्पलगाल वा, ३. भिसं वा, (१) नीलकमल है, (२) कमल की नाल है. (३) पद्म ४. भिसमुणालं या, ५. पोस्खलं वा, पोक्ख लत्थिन कन्दमूल है, (४) पद्म कन्द के ऊपर की लता है, (५) पद्म था, अण्णतरं वा तहप्पगारं आम असत्यपरिमयं अफासुयं केसर है या, (६) पद्मकन्द है, तथा इसी प्रकार अन्य कन्द है जावणी पडिगाहेजना। जो कच्चा (मचित्त) है वह शस्त्रपरिणत नहीं है, तो उसे -आ. सु. २, अ. १, उ.सु.३८३ अप्रामुक जानकर-यावत्-ग्रहण न करे । असत्यपरिणयाणं अग्गबीयाईणं गहण णिसेहो अशस्त्रपरिणत अग्रवीजादि के ग्रहण का निषेध१५४. से मिक्खू या, भिक्षी वा गाहावइकुलं पिंजवायपपियाए ६५४, गुहस्य के घर में आहार के लिए प्रविष्ट भिक्ष या अणुपषिदु समाणे से ज्ज पुणं जरणेज्जा-तं जहा- भिक्षणी यदि यह जाने कि-- १. अग्गीयाणि वा, २. मूलबीयाणि वा, ३. खंधबीयाणि वा. (१) अबबीज वाली, (२) मूल दौज वाली, (३) स्कन्ध ४. पोरबीयाणिवा, ५. अरगजायाणि वा, ६. मूलजापाणि बीज वाली, (४) पर्वबीज वाली वनस्पति है, (५) अनजात, पा, ७. संधजायाणि वा, ८. पोरजायाणि वा, णण्णत्य- (६) मूलजात, (७) स्कन्धजात तया (6) पर्वजात वनस्पति १. तक्कलिमत्यएग वा, २. तक्कलिसीसेग बा, ३. गालि- (१कन्दली का गूदा, (२) कन्दली का स्तबक, (२) नारिएरिमथएण वा, ४. खजूरिमथएष वा, ५. तालमत्थरण पल का गूदा, (४) खजूर का गूदा, (२) ताड का गूदा के वा, अण्णतरं वा तहप्पगारं आभं असत्थपरिणयं अफासुमं सिवाय अन्य इस प्रकार के फल आदि कच्चे (सचित्त) और जावणो पडिगाहेजा। अशस्त्रपरिणत है उसे अप्रासुक जानकर-यावत्-ग्रहम न करे । --आसु० २, अ० १, २०८, सु. ३८४ असस्थपरिणयाणं उच्छुआईणं गहणिसेहो अशस्त्रपरिणत इक्षु आदि के ग्रहण का निषेध१५५. से मिक्लू बा, भिक्खूणी या गावहकुलं पिंडवायपजियाए १५५. गृहस्य के यहाँ आहार के लिए प्रशिष्ट भिक्ष या भिक्षणी अणुपबिटु समाणे से जं पुण जामा पदि यह जाने कि१. उच्छु वा कागं, २. अंगारियं. ३. समिस्सं (१ इक्ष काणा (छेद वाला) है, (२) विवर्ण हो गया है, ४. बिगदूमियं. ५. वेसणं चा, ६.कंवलिऊसगंवा, (३) फटी हुई छाल वाला है, (४) सियार का खाया हुआ है अण्णतरं वा तहप्पगारं आमं असस्थपरिणयं अफासुयं-जाव- तथा (५) बेंत का अग्रभाग या, (६) कदली का मध्य भाग है गो पडिगाहेज्जा। अथवा अन्य भी ऐसी कच्ची (सचित्त) और अगस्त्र परिणत —आ. सु. २. अ. १, उ.८, मु. ८५ दनस्पतियाँ है, तो उन्हें अप्रामुक जानकर-यावत्-ग्रहण न करे । असस्थपरिणयाणं लसुणाईणं गहणणिसेहो सशस्त्रपरिणत लसुण आदि के ग्रहण का निषेध - ६५६. से भिक्खू वा, भिक्खूणी वा गाहावरफुलं पिस्वायपडियाए १५६. गृहस्थ के घर में आहार के लिए प्रविष्ट भिक्ष या अणुपवि? समाणे से जं पुण जाणेज्मा भिक्षणी यदि यह जाने कि१. ससूर्ण वा, २. लसुणपत्तं वा, ३. लसुगणालं वा. (१) लहसुन. (२) लहसुन का पत्ता, (३) सहसुन की नाल, ४. लसुणकचं वा, ५. लसुणदोयगं वा, अण्णतरं वा सहप्प- (४) लहसुन का कन्द, (५) लहसुन के बाहर की छाल या अन्य गार आम मसस्पपरिणयं अफासुयं-जाच-गो पहिगाहेग्ना। भी इसी प्रकार की वनस्पति जो कि कच्ची (सचित्त) और -आ. ह.२, अ. १, उ.८, सु, ३८६ अशस्त्रपरिणत है, तो उसे अप्रासुक जानकर-वागत-ग्रहण न करे।

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