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त्र२२-६२५
मानपिंड दोष
चारित्राचार : एषणा समिति
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(२) मानपिड दोन
(२) मानपिण्ड दोष६२२. जे माहणे वत्तिय जायए वा, तहम्मपुत्ते तह लेच्छ वा । ९२२. जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, उमपुत्र अथवा लिच्छवी जाति वाला जे पबहए परवत्तभोई, गोतेण जे यम्मद माणबसे॥ है, प्रजित होकर गृहस्थों से दिया हुआ आहार खाता है और -सुय. सु. १, अ. १३. गा.१० अपने उच्च गोत्र का अभिमान नहीं करता है वही पुरुष सर्वज्ञ के
मार्ग का अनुयायी है। णिमिकंचणे भिक्खू सुलूहजीवी, जे गारवं होइ मिलोपगामी। जो भिक्षु अकिंचना है और रू आहार से तीवन निर्वाह आजीवमेयं तु अबुजामाणे, पुणो-पुणो विपरियासुवेति ॥' करता है किन्तु गर्व करता है एवं प्रशंसा चाहता है तो वह
- नूय. सु. १, अ. १३. गा. १२ अज्ञानी केवल आजीविका करता हुआ पुन: भव-भ्रमण करता है। (३) लोभपिउदोस--
(३) लोभ-पिण्ड दोष६२३. सिया एगइओ ल , लोभेण विणिगृहई ।
६२३. कदाचित् कोई एकः मुनि सरस आहार पाकर उसे इस मा मेयं बाइयं संतं. बठूर्ण सयमायए ।।
लोभ से छिपा लेता है कि आचार्य आदि को दिखाने पर वह अत्तगुरुओ सुद्धो, पहुं पावं पफुस्बई । स्वयं ले ले वे मुझे न दें, वह अपने स्वार्थ को प्रमुखता देने वाला दुत्तोसओ य से होइ, निवाणं च न गच्छई।
और रस-लोलुप मुनि बहुत पाप करता है, वह जिस किसी वस्तु - 1... उ. .3:-३२ से संतुष्ट नहीं होता और (ऐसा साधु) निर्वाण को नहीं पाता। संचार सेवजासण-मत्त-पाणे अप्पिच्छया पहला वि संते। संस्तारक, माय्या, आसन, भक्त और पानी का अधिक लाभ जो एवमप्पाणऽभितोसएन्जा संनोसपाहपरए स पुज्जो ॥ होने पर भी जो अलोच्छ होता है जो इस तरह अपने आप को -दस. अ.१, उ. ३, गा.५ संतुष्ट रखता है और जो संतोषप्रधान जीवन में रत है, वह
ज्य है। पुष्व-पच्छा संथव दोस
(४) पूर्व-पश्चात् संस्तव दोष६२४. निक्खम्म दोणे परभोपगंमि, मुहर्मगलिओररियाणुगिखें। १२४. जो श्रमण स्वगृह त्याग कर दूसरे से भोजन पाने के लिए निवारगिद्ध व महावराहे, अदूरएवेहति घातमेव ॥ दीनता करता है तथा भोजन में असक्त होकर गृहस्व को प्रशंसा
करता है, वह चावल के दानों में आसक्त महाशूकर के समान
शीघ्र ही नाश को प्राप्त होता है। अन्नस्स पाणसिहलोइयस्स, अणुप्पिय भासइ सेवमाणे । जो इहलौकिक पदार्थ अन्न, पानी आदि के लिए त्रिय पासत्ययं चेत्र कुसीलयं च निस्सारए होह जहा पुनाए । भाषण करता है, वह पाश्वस्थ भाव तथा कुशील-भाव का सेवन
-सूय. स. १, अ. ७, गा. २५-२६ करता हुमा पुआल के समान निस्सार हो जाता है । पृथ्वपच्छायवदोसस्स पायच्छित सुतं
पूर्व पश्चात् संस्तव दोष का प्रायश्चित्त सूत्र६२५. जे भिक्छ पुरेसंगवं वा पच्छा संयवं वाकरेड, करेंतं वा जो भिनु (दान देने के) पहले या लेछ स्तुति करता है. साइज्जा ।
करवाता है, या करने वाले का अनुमोदन करता है। तं सेवमाणे आबज्जइ मासियं परिहारट्ठाणं उग्याहय । उसे मासिक उद्घा तिक परिहारस्थान (प्रायश्चित्त) आता है।
- नि.उ.२, सु.३८
१ (क) सूत्रकृतांग सूत्र में भिक्षु के लिए मान करने का निषेध है किन्तु निशीथ चूणि और पिण्डनियुक्ति में मानपिण्ड की यथार्थ
व्याख्या की गई है। (ख) मानपिण्ड दोष की उदाहरण पूर्वक व्याख्या देखिये
-नि, चणि गा. ४४४४-४४५४ (१) व्याख्या इस प्रकार है
ओच्छाष्टिओ परेण बा, लद्धि-पसंसाहि वासमुश्त्तो । अवमाणिो परेण य, जो एसइ माणपिण्डो सो॥ - पिण्ड गा. ४६५ २ (क) मोहरंति मौनेयंण पूर्व संस्तव-पश्चात्संस्तवादिना बहुभाषितेन यल्लभ्यते तन्मौवयंमुत्पादना दोष -
-पाह, सु. २, अ. ५, सु. २० की टीका (ख) पह. सु. २, अ.५, सु. में पूर्वपश्चात्मंस्तव दोष का मौर्य नाम है। ३ मंस्तव के भेद, संस्तव के दोष आदि के लिए देखिए---
-पिण्ड नि. गा. ४८४-४६३