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चरणानुयोग
कल्पस्थित अकल्पस्थित के निमित्त बने आहार के ग्रहण का निर्णय
पत्र ६-८९९
एएहि बोहि ठाणेहि, वबहारो न विज्जती।
इन दोनों प्रकार के निश्चय कथन से व्यवहार नही चलता एएहि दोहि ठाणेहिं, अणायारं तु जाणए ।'
है, इन दोनों प्रकार के निश्चय कथन को अनानार जानना -सूय. सु. २, अ. ५, गा.-१ चाहिए । कप्पाकप्पट्रियाण णिमित्त आहारस्स गहण विणिच्छओ- कल्पस्थित अकल्पस्थित के निमित्त बने आहार के ग्रहण
का निर्णय८६६. जे कजे कप्पट्टियाण, कप्पड़ मे अकप्पट्टियाण, नो में कप्पह- ८६६. जो (अशन यावत्-स्वादिम) कल्पस्थितों के लिए कप्पटियाणं।
बनाया गया है व अकल्पस्थितों को कल्पता है. कल्पस्थितों को
नहीं कल्पता है। से कडे अकप्पट्ठियाणं णो से कप्पह कपट्ठियाण, कप्पइ जो अकल्पस्थितों के लिए बनाया गया है, वह कल्पस्थितो से अकप्पट्टियागं
को नहीं कल्पता है (अन्य अकल्पस्थितों को कल्पता है । कप्पे ठिया कम्पटिया,
जो कल्प में स्थित हैं वे कल्पस्थिर हैं। अकप्पे ठिया अकप्पट्ठिया। -कप्प. उ. ४, सु. १६ जो अकल्प में स्थित हैं वे अवल्पस्थित हैं।
१ टीकाकार ने आधाकर्मी आहार करने से कर्मबन्ध होने के विषय में इस प्रकार से स्पष्टीकरण किया है--
साधु प्रधानकारणमाधाय-आश्विल्य कमाण्यांधार्माणि, तानं च पर भोजन-नसत्यादोन्युच्यन्ते, एतान्याधाकर्माणि ये भुजन्तेएते रूपभोगे ये कुर्वन्ति "अन्योऽन्य" परस्परं तान् स्वकीयेन कर्मणोपलिप्तवान् बजानीयादित्येवं नो वदेत्-तथाउनुपलिप्तवानपि नो वदेत् । एतदुक्तं भवति-आधाकर्मापि ध्रुतोपदेशेन शुद्धमिति कृत्वा भुजान; कर्मणा नोपलिप्यते । तदाधाकर्मोपभोगनावश्यहया कमबन्धो भवतीत्येवं नो वदेत् । तथा श्रुतोपदेशमन्तरेणाहारगया:ऽधाकर्मभुजानस त निमित्त कर्मबन्ध सदभावात् अतोऽनुपतिप्तवानपि नो वदेत् । यथावस्थित्तमौनीन्द्रागमशन्यत्वेवं युज्यते वस्तुम् "आधाकोपभोगेन स्मात्कर्म बन्धः स्यान्नेति ।" यत उक्तम्-किचिन्दं कल्प्यमकल्प्यमपि कल्प्यम् । पिण्डःशय्या, वस्त्र, पात्र का भेषजाय वा । सथाऽन्येरप्यभिहितम्--उत्पत हि साऽवस्था, देषा कालामयान्प्रति । यस्यामकार्य कार्यस्यात्, कर्मकायं च वर्जयेत् ।। इत्यादि । किमित्येवं स्याद्वादः प्रतिपाद्यत इत्याह- "आभ्यां द्वाभ्या स्थानाभ्यामाथिज्ञाभ्यान्योया स्थानयोराधाकोपभोगेन कर्मबन्धभावाभावभूतयोन्यवहारो न विद्यते । तथाहि-यद्यवस्यमाधाकर्मोपभोगेनकान्तेन कर्मबन्योऽभ्युपगम्येत-एवं वाहाराभावेनापि क्बनित्सुतरामन दयः स्यात् । तथाहि-क्षुरप्रपीडितो म सम्यगीयपर्थ शोध्येत् । ततश्च वजन प्राप्युपमदमपि कुर्यात् । मूर्छादिसदभावतया च देहपाते सत्यवश्यंभावी प्रमादि व्याधातोऽकालमरणे चावरतिरङगीकृता भवत्यातं ध्यानापत्तो च तिर्यगतिरिति । आगमश्च-"सच्चत्य संजमं संजमाओ अप्पाणमेव कखेम्जा' इत्यादिनापि सदुपभोगे कर्मबन्धाभाव इति । तथाहि-आधाकर्मण्यपि निष्पद्यमाने षड्जीवनिकायवधस्तद्वधे च प्रतीत: कर्मवन्ध इत्यतोनयोः स्थानयोरेकान्तेनाश्रीयमाणयो व्यवहरणं व्यवहारो युज्यते । तथाऽऽभ्यामेव स्थानामा समाथिताम्यां सर्वमनाचारं विजानीयादिति स्थितम् ।
-सूच. गु. २. अ. ५, गा. ८.६ को टीका पृ. ३७४ इस प्रकार टीकाकार ने दोनों एकान्त कथनों को अनाचार कहा है। कल्पस्थित-आचेलक्य आदि दस प्रकार के कल्पों के अनुसार आचरण करने वाला तथा पंचमहायतधारक कल्पस्थित कहा जाता है । भगवान् कृषभदेव और भगवान महावीर के अनुयायी श्रमण कल्प स्थित कहे जाते हैं । अकल्पस्थित-चार मह व्रत धारक अकल्पस्थित कहा जाता है। भगवान् अजितनाय से लेकर भगवान् पार्श्वनाथ पर्यन्त के अनुयापी श्रमण अकल्पस्थित कहे जाते हैं।