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सूत्र ८६0-585
आधाकौं आहार करने से कर्मबन्ध का एकांत कधन निषेध
चरणानुपोग
J५५५
इह खलु पाईणं या-जाव-उसीणं वा संगतिया नढा भवंति यहाँ (जगत् में) पूर्व-यावत्-उत्तर दिशा में कई श्रद्धालु गाहावतो वा-जात्र-कम्मकरी वा। तेति च णं एवं धुतपुरुषं गाथापति -यावत् -नौकरानियाँ होते है, ये पहले से ही श्रमण भवति
की आचार, मर्यादा के ज्ञाता होते हैं।
"जे इमे भक्ति सभणा भगवंतो सीलमंता, वयमंता, गुण- "श्रमण भगवन्त शीलवान् , व्रतनिष्ठ, गुणवान्, संपत, मंता, संजता, संवुडा, बंभचारी, उवरण मेहुणासो कम्मासो संवृत (आन्त्रवों के निरोधक ब्रह्मचारी एवं मैथुन कर्म से निवृत्त णो खलु एतेसि कप्पति आधाम्मिए असणं वा-जाय- साइमं होते हैं। इन्हें आधार्मिक अशन---यावत्-स्वादिम आहार वा भोत्तए वा, पायए वा ।
स्राना या पौना कल्पनीय नहीं है । से उजं पुण इमं अम्हं अप्पणी अट्ठाए णिति,
अतः हमने अपने लिए जो आहार बनाया है, तं जहा-असणं वा-जाब-साइमं वा. सध्यमेयं समणाणं वह सब अशन-पावत - स्वादिम आहार हम इन श्रमणों जिसिरामो, अवियाई वयं पच्छा वि अपणो अयट्ठाए असर्ण को दे देंगे और हम अथने लिए बाद में नया अशन' -पावत्या-जाब-साइम वा तिस्सामो।"
स्वादिम आहार बना लेंगे।
एयप्पणारं मिग्घोस सोचा णिसम्म तहप्पगार असणं वा उनके इस प्रकार यो वचन सुनकर, समझकर (साधु या -जाव-साइमं या अफासुयं अणेसणिज्ज ति मण्णमाणे सामे साध्वी) इस प्रकार के (दोषयुक्त) अशन-यावत्-स्वादिम विसंते णो पडियाहेमा ।
अहार को अनासुक और अनेषणीय मानकर मिलने पर भी __ -आ. सु. २, अ १, उ. ६, ६.३६० ग्रहण न करे । सिया से परो कालेण अणुपविट्ठस्स आधाम्मियं असणं वा कदाचित भिक्षा के समय प्रवेश करने पर भी गृहस्थ आधा
जान-साइमं वा उपकरेग्ज वा उबक्सडेन्ज बा। तंग- कमिक अशन-यावत् --स्वादिम बनाने के साधन जुटाने लगे तिओ तुसिणीओ उबेहेज्जा "आहजमेमं पन्चाइक्लिस्सामि" या आहार बनाने लगे उसे देखकर साधु इस अभिप्राय से चपमातिढाणं संफासे । णो एवं करेजा।
चाप देखता रहे कि "जब यह आहार लेकर आधेगा, तभी उसे लेने से इन्कार कर दूंगा' यह सोचना माया स्थान का सेवन
करना है। साधु ऐसा न करे। से पुवामेव आलोएग्जा
वह पहले से ही उन्हें कहे"आउसो ! ति वा भइणो! ति वा जो खलु मे कप्पति “आयुष्मन् गृहस्थ ! या बहन ! आधामिक अशन-पावत्आहाकस्मियं अरुण बा-जाब-साइमं बा भोत्साए वा पायए स्वादिम खाना या पीना मुझे नहीं कल्पता है अतः मेरे लिए न वा, मा उपकरेहि मा उवास्थडेहि"
तो (अशनादि बनाने के साधन एकत्रित करो और न बनाओ।" से सेव बर्यतस्स परो आहाकम्मियं असणं वा-जान-साइमं या उस साधु के इस प्रकार कहने पर भी यदि बह गृहस्थ उपक्सवेत्ता आहट्ट वलएज्जा । तहप्पमारं असणं वा-जाव- आधार्मिक अशन-यावत्--स्वादिम आहार बनाकर लाए साइमं वा अफासुब-जाव-गो पडिगाहेज्जा।
और साधु को देने लगे तो वह साधु उस अपन-थावत्-- -अ. सु. २, अ. १, उ. ६, सु. ३९२ स्वादिम को अनासुक जानकर-पावत्-ग्रहण न करे। आहाकम्म आहारेण कम्मबंधरस एगंतकहण णिसेहो- आधाकर्मी आहार करने से कर्मबन्ध का एकान्त कथन
निषेध५१८, आहाफम्माणि मुंजति, अण्णमण्णे, सकम्मुणा । ५६. आधाकम दोष शुक्त आहारादि का जो साधु उपभोग जयलिते ति जाणेज्जा, अणुवलिते ति वा पुणो । करते हैं, वे (आधाकर्म दोषयुक्त आहारादि का दाता तथा उप
भोक्ता) दोनों सत्संबन्धी कर्म से उपलिप्त हुए हैं, अथवा उपलिप्त नहीं हुए हैं,
हा