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सूत्र ८०१-८०४
कसायं परिवज्ज भासिय
०१. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा वंता कोहं स माणं च मायं च लोभ च. अण्वीय पिट्ठमासी निसम्मभासी अतुरियमासी विवेगभासी समियाए संजते भासं भासेज्जा ।
कषाय का परित्याग कर बोलना चाहिए
कथा का परित्याग कर बोलना चाहिए
८०१. साधु या साध्वी क्रोध, मान, माया और लोभ का वमन (परित्याग) करके निष्ठाभाषी विचारपूर्वक बोलने वाला हो, सुनकर ममसकर बोलने वाला हो, जल्दी-जल्दी बोलने वाला न - आ. सु. २, अ. ४, उ. २, सु. ५५१ हो एवं विवेकपूर्वक बोलने वाला हो और भाषा समिति से युक्त संयत भाषा का प्रयोग करे । आमन्त्रण के सम्बन्ध में असावद्य भाषा विधि८०२. संयमशील साधु या साध्वी किसी पुरुष को आमंत्रित कर रहे हों और आमंत्रित करने पर भी वह न सुने तो उसे इस सम्बोधित करे अमुक भाई हे आयुष्मान् ! जो श्रावक जी ! हे उपासक हे धार्मिक मंत्र इस प्रकार की निरवद्य–जावत् जीवपातरहित भाषा विचार पूर्वक बोले ।
- आ. सु. २. अ. ४, उ. १. सु. ५२७ भाभी या इस्थी आमलेगा आमंति अपडणेमाणी एवं बवेज्जा- "आउसो ति वा भगिणी ति वा. भगवतीति वा साविति वा सितारे धम्मिए ति या धम्मप्पिए ति वा । एतप्पारं पातं असा धार्मिके ! धर्मप्रिये ! इस प्रकार की निश्वय - पावत् — जीवोअति अभिमाना पातरहिन भाषा विचार क
साधु या सानी किसी बहुत बुलाने पर भी वह ग आयुष्मती पहन ! !
महिला को आमंत्रित कर रहे हों तो सुने तो उसे इस प्रकार सम्बोधित भगवती भनि उपातिक ! ! !
आमंत असावन मासा विही८०२. से भिक्खू वा भिक्खुणी वा पुमं आमंतेमाणे आमंतिले अपडसुणेमाणे एवं बवेज्जा - "अनुगे ति था आउसो ति वा सातवा उदाति या धमिति वा तिया एसा भास असा जावोवपातयं अभिकख भासेज्जा ।
- आ. सु. २. अ. ४, उ. १, सु. ५२६ अंतरिक्ष विसए मासा विहो
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अन्तरिक्ष के विषय में भाषा विधि-
८०३. से मिक्यू वा भिक्खूनी वा अंतलिवले ति वा गुग्ाणुचरिते ८०३ साधु या साध्वी को प्राकृतिक दृश्यों के सम्बन्ध में कहने तिवासावा
मालि
प्रसंग उपस्थित हो तो आकार को वृानुचरित -अन्तरि (आ) कहे या देवों के मनागमन करने का मार्ग कहे। वह -आ. सु. २, अ. ४, उ. १, सु. ५३१ पयोधर (मेघ) जल देने वाला है, सम्मूच्छिम जल बरसता है, या यह मेघ बरसता है, या बादल वरस चुका है, इस प्रकार की भाषा बोले ।
ख्वाइसु असावज्ज भासाविही
०४. से भिक्खू वा भिक्खूणी वा जहा वेगतियाई रुवाई पासेज्जा तहा वि ताई एवं वदेज्जा, तं जहा- ओसी-ओयंसी ति वा तेयंसी- सेयंसीति वा बच्वंसी-बच्वंसी ति था, जसं सी-असंसी ति वा अभिरुवं अभिरूये ति वा पडिरूवं पडियेति वा पासादिलादिए ति वा दरिपरिवगीए ति या
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दस० अ० ७. गा० ५५ ।
वान बुदा पुरियोले या नामदेव पंजा का
४ तनिटि में था, "गुशावरिय" विय
चारित्राचार [ute
रूपों को देखने पर असावध भाषा विधि
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८०४ साधु वा साध्वी यद्यपि कितने ही रूपों को देखते हैं तथापि में उनके विषय में (संयमी भाषा में) इस प्रकार कहेंजैसे कि ओजस्वी को "ओजस्वी तेजस्वी को "तेजस्वी" वचंस्वी (दीप्तिमान, उपादेयवचनी या लब्धियुक्त) को "बर्चस्वी" यमस्थी को "स्त्री" (कोपा हो उसे) "अभिरूप" प्रतिरूप को (जो समान रूप वाला हो उसे ) "प्रतिरूप" प्रासाद गुण (सात हो उसे "प्रासादीय" जो देखने योग्य हो उसे "दर्शनीय" कहकर सम्बोधित करे।
जहारमा आज था। हर आवेश सज्ज था।
- दम० अ० ७, गा० २० - दम० अ० ७. ग्रा० १७ इस० अ० ७, गा० ५३