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सूत्र ५८-८६१
नौ प्रकार की शुबमिक्षा
पारित्राचार : एषणा समिति
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उम्गमुप्पयाणं पढमे, बोए सोहेम्ज एसणं ।
वतार शिशुपाने सनथम उनम और उत्पादन परिमार्थमि पउपक, विसोहेज जय जई॥
दोनों के १६-१६ दोषों का शोधन करे ।
दूसरे में एषणा के १० दोषों का शोधन करे।
फिर परिभोगेषणा के दोष-चतुष्क (संयोजना, अप्रमाण, -उत्त. अ. २४, गा. ११-१२ अंगारधूम और कारण) का शोधन कर आहार करे । नवविहा सुद्धभिक्खा
नौ प्रकार की शद्ध भिक्षा५६. समगेणं भगवता महावीरेणं समणरणं निरगंयाणं णवकोकि- ८५६. श्रमण भगवान महाबीर ने श्रमण निग्रन्थों के लिए नौ परिसुळे भिक्खे पण्णते, तं जहा
कोटि परिशुद्ध भिक्षा का निरूपण किया है। जैसे-- १. न हद
(१) हिंसा नहीं करता है, २. न हणावड,
(२) हिंसा नहीं करवाता है, ३, हणतं नाणुजागह।
(३) हिंसा करने वाले का अनुमोदन नहीं करता है। ४. ने पयह
(४) पकाता नहीं है, ५. न पयापेइ,
(५) पकवाता नहीं है। ६. पयंत नागुजाणइ।
(६) पकाने वाले का अनुमोदन नहीं करता है। ७. न किगड,
(७) खरीदता नहीं है, ८. न किणावेह,
(८) खरीदवाता नहीं है, ६. किणतं नाणुमागइ।।
(६) स्वरीदने वाले का अनुमोदन नहीं करता है।
--ठाणं, अ. ६, सु.६८१ आहारपायणिसेहो
माहार-पाचन का निषेध८६.. तहेव भत्त-पाणसु, पयर्ग पयावर्गसु य ।
८६०. भक्त-पान के पकाने और पकवाने में हिंसा होती है, अतः पाण-भूयदयटाए, न प्ये न पयायए ॥
प्राण, भूत, जीव और सत्व की दया के लिए भिक्षु न पकाए
और न पकवाए। जल-धमनिस्सया मौवा, पुढयो-कट्ठनिस्सिया।
भक्त और पान के पकाने और पकवाने में जल और धान्य हम्मन्ति प्रत्तपाणेसु, तम्हा मिक्खू न पयावए । के आश्रित तथा पृथ्वी और काष्ठ के आश्रित जीवों का हनन
-उस. अ. ३५, गा. १०-११ होता है, इसलिए भिक्षु न पकाए न पकवाए । छश्विहा गोयरिया--
छह प्रकार की गोचरी - २६१. छबिहा गोवरचरिया पग्णता, तं जहा
८६१. छह प्रकार की गोचरचर्या कही गई है, यथा१. पेडा,
(१) पेटा-चोकोर पेटिका के आकार से घूमते हुए दिशाओं
में भिक्षाचर्या करना। २. अबपेडा,
(२) अर्धपेटा--अर्द्ध पेटिका के आकार के दो दिशाओं में
भिक्षाचर्या करना। ३. गोमुत्तिया,
(३) गोमूत्रिका-बैल के मुत्रोत्सर्ग के समान एक इस पंक्ति के घर में और एक सामने वाली पंक्ति के घर में इस क्रम से
भिक्षाचर्या करना। ४. पतंगविहिया,
(४) पतंगवीयिका-पतंगिये के फुदकने के समान बिना
किसी क्रम के भिक्षापर्या करना । ५. संयुक्कसट्टा,
(५) शंबुकावर्ता--- शंख के आवतों की तरह घूमते हये भिशाचर्या करना।
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आ. सु. १,अ. २,, ५, सु.८६