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पषिचे अपरिग्रह महानत की पांच भावनाएँ
चारित्राचार
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१०-फिते ?
प्र.-वे रस कौन से हैं? उ०-जमाहिम-विविहाण-पोषणेसु गुलकय-खंडक्य-तेल्ल- उल-तले हुए वस्तु, विविध प्रकार के पानक-भोजन, गुड़,
घयकयसक्लेसु बहुविहेसु लवणरस-संजुसे वालियंग- शक्कर, तेल और घी से बने हुए भोज्य पदार्थ, अनेक प्रकार के सेहंम्म-बुद्ध-बहिबाइं अठारस पगारेसु य मणुन-वन- नमकीन आदि रसों से युक्त, खट्टी दाल, सेन्धाम्ल-रायता गंध-रस-फास बहुदल्यसंमितेसु अन्नेसु य एवमाइएसु आदि, दूध, दही आदि अठारह प्रकार के व्यंजन । मनोज वर्ण, रसेसु मगुन्न भब्बएमु तेमु समणेण न सज्जियध्व-जाव- गन्ध, रस, और स्पर्श से युक्त अनेक द्रव्यों से निर्मित भोजन न सइंच, मईच तस्थ कुज्जा।
तथा इसी प्रकार के अन्य मनोज्ञ एवं सुहावने-लुभावने रसों में साधु को आसक्त नहीं होना चाहिए-यावद-उनका स्मरण
तथा विचार भी नहीं करना चाहिए । पुणरवि मिलिबिएण साइपरसाई अमन पापकाई- इराके अतिरिक्त जिह्वा-इन्द्रिय से अमनोज और असुहावने
रसों (का आस्वाद करके रोष आदि नहीं करना चाहिए ।) प०-कते?
प्र०-वे अमनोज्ञ रस कौन से हैं? जा-अरस - विरस - सीय - लुक्याणिज्जप-पाण-भोषणाई उ. -रसहीन, बिरस-पुराना होने से विगतरस, ठण्डे,
बोसीण - वाषन्न • कुहिय - पूइय-अमन-त्रिण?-पसूय- रूखे निर्वाह के अयोग्य भोजन पानी को तथा रात-बासी, रंग महबुभिगंधियाहं तित्त-कडुय-कसाय-अबिलरस-सीद- बदले हए सडे हुए दुर्गन्ध वाले अमनोज्ञ ऐसे तिक्त, कटु, कसैले भीरसाई
सट्टे, शैवाल सहित पुराने पानी के समान एवं नीरस पदार्थों में अन्नेसु य एवमाइएसु रसेसु अमणुन-पावएस न तेसु तथा इसी प्रकार के अन्य अमनोज तथा अशुभ रसों में साधु समण ने कॉसया-जाव- दुगु छात्तिसाए लम्मा को रोप नही करना चाहिए यावत्-मन में जुगुप्सा-घृणा भी उप्पाएउ एवं जिभिदिय भावणा भाविप्रो भवइ नहीं होने देनी चाहिए । इस प्रकार अन्तरात्मा रसनेन्द्रिय की अंतरप्पा-जाव-चरेग्ज धम्म ।
भावना से भाक्ति होती है-यावत्-धर्म का आचरण करना
चाहिए। पंचमग
पंचम भावना-स्पर्शनेन्द्रिय संयमपुण फासिविएण कासिम फासाउ मणुन-श्वदकाई- स्पर्शनेन्द्रिय से मनोज्ञ और सुहावने स्पों को छूकर (राम
भाव नहीं करना चाहिए) १०-किसे?
प्र.-वे मनोज्ञ सार्थ कौन से हैं ? उ-नगमंडव - होर-सेयचंबण-सीयसजल-विमलजस-विविह
फब्बारे वाले मण्डप, हीरक, हार, श्वेत, चन्दन, कुसुम सत्थर ओसीर-मुत्तिय-मुणाल-दोसिणा-पेडण- शीतल निर्मल जल, विविध पुष्पों की शय्या, मोती, पद्मनाल, उक्खेवग-तालियंट-वीयणग-जणिय-सुहसीयले य पवणे चन्द्रमा की चान्दनी तथा मोरपिच्छी, तालवृत्त, ताड़ का पंखा, गिम्हकाले तुह-फासाणि य हणि सणापि आस- पंने से की गई सुखद शीतल पवन में, ग्रीष्मकाल में सुखद स्पर्श गागि य, पाउरणगुणे व सिसिरकाले अंगारपसावणा वाले अनेक प्रकार के शयनों और आसनों में, शिशिरकाल-शीतय।
काल में आवरण गुण वाले अर्थात् ठण्ड से बचाने वाले, आयव-निश-मय-सीय-उसिण-लहषा य, जे उसुह- वस्त्रादि में अंगारों से शरीर को तपाने, धूप, स्निग्ध-तेलादि कासा अंगसुहनिवडकराते
पदार्थ, कोमल और शीतल, गर्म और हल्के - जो ऋतु के अनुकूल सुखप्रद स्पर्श वाले हों, शरीर को सुख और मन को मानन्द
देने वाले हों, ऐसे सब स्पों में, अन्नेमु व एवमाइएसु फासेसु मन-मदएस तेसु तथा इसी प्रकार के अन्य मनोज्ञ और सुहावने स्पशों में समण सविजयन्व-जाव-न सईच, मई च तस्थ श्रमण को आसक्त नहीं होना चाहिए-यावत् -उनका स्मरण
और विचार भी नहीं करना चाहिए ।