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सूत्र ६६३-६६६
रूप-वर्शन आसक्ति-निषेध
चारित्राचार
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रमंसाणि या मोहंताणि वा विपुलं असणं-जाव-साइमं परि- . यायत-स्वादिम पदार्थों का उपभोग करते हों परस्पर बाँटते मुंजतागि वा परिमार्यताणि वा बिछड्थ्यमागाणि वा हों या परोसते हों, त्याग करते हों, परस्पर तिरस्कार करते हों विग्गोषयमाणाणि वा अण्णय राई वा तहप्पगाराई विरूव- उनके शब्दों को तथा इसी प्रकार के अन्य बहुत से महोत्सवों में रुवाई महुस्सवाई' कष्णसोयपशिपाए गो अभिसंध रेज्जा होने वाले शब्दों को कानों से सुनने के लिए जाने का मन में गप्रणाए ।
संकल्प न करे। से मिक्खू वा भिक्खुणो या गो इहलोइएहि सद्देहि णो पर- साधु या साध्वी इहलौकिक एवं पारलौकिक शब्दों में श्रुत लोएहि सहि. णो सुतेहि सद्देहि, गो असुतेहि सहि, गो (सुने हुए) या अश्रुत (बिना सुने) शब्दों में, देखें हुए या बिना विटु हि सइंहि, नो अविहि सहि, गो होहिं सद्देहि, णो देखें हुए शब्दों में, इष्ट और कान्त शब्दों में न तो आसक्त हो, कंसेहि सद्देहि सज्जेज्जा, जो रज्जे उमा, णो गिग्जा , पो न रक्त (रागभाव से लिप्त) हो, न गृद्ध हो, न मोहित हो और मुज्ज्मा , णो असोयवज्जेज्जा ।
न ही मूञ्छित या अस्मासक्त हो। --आ. सु. २, क. ११. सु. ६६६-६८७ रूवाबलोयणासत्ति णिसेहो
रूप-दर्शन आसक्ति-निषेध६६४. से भिक्खू वा मिक्षणी वा अहावेगइमाई स्वाईपासति, ६६४. साधु या साध्वी अनेक प्रकार के रूपों को देखते हैं जैसे
तं जहा- गंथिमाणि वा वेतिमाणो वा पूरिमागि वा संघा- गूंथे हुए पुरुषों से निष्पन्न स्वस्तिक आदि को, वस्त्रादि से वेष्टित तिमाणि वा कटुकम्माणि वा पोस्थकम्माणि वा चित्तकम्मागि या निष्पन्न पुतली आदि को, जिनके अन्दर कुछ पदार्थ भरने से बा मणिकम्माणि वा बंतकम्माणि या पत्तच्छेज्जकम्माणि वा पुस्पाकृति बन जाती हो, उन्हें अनेक वर्गों के संघात से निर्मित विविहाणि वा वेदिमाई अण्णतराईका सहप्पगाराई बिरूव- चीलादि को, काष्ठ कर्म से निर्मित रथादि पदार्थों को, पुस्तकर्म स्वाद चखुदसणवरियाए गो अभिसंधारेजा गमगाए । से निर्मित पुस्तकादि को, दीवार आदि पर चित्रकर्म सनिमित
चित्रादि की, विविध मणिकम से निमित स्वस्तिकादि की, दंतकर्म से निर्मित दन्तपुत्तलिका आदि को, पत्रच्छेदन कम से निमित्त विविध पत्र आदि को, अथवा अन्य विविध प्रकार के वेष्टनो से निष्पक्ष पदार्थों को, तथा इसी प्रकार के अन्य नाना पदायों के रूपों को, बाँखों से देखने की इच्छा से साधु या साध्वी उस ओर
जाने का मन में संकल्प न करे। एवं नेयवं जहा सहपडिमा सवा बाइत्तवज्जा स्वपडिमा इस प्रकार जैसे शरद सम्बन्धी प्रतिमा में ऊपर वर्णन किया -आ. सु. २, अ. १२, सु. ६८६ है, बसे ही यहाँ चतुविध बातोयवाद्यो को छोड़कर रूप प्रतिमा
के विषय में भी जानना चाहिए। पासह एगे हवेसु गिडे परिणिज्जमाणे। एस्थ फासे पुणो देखो ! जो रूप में गृद्ध है वे नरकादि योनियो में पूनः-पूनः
पुणो। -आ. सु. १, अ. ५, उ. १, सु. १४६ (घ) उत्पन्न होने वाले हैं। बालाणं दुमक्षाणुभवणहेउणो
बाल जीवों के दुःखानुभव के हेतु-- ६६५. बाले पुण णिहे कामसमगुग्णे असमितवुपये दुक्खी नुक्खाण- ६९५. बाल (अज्ञानी) बार-बार विषयों में स्नेह (आसक्ति) करता मेव आवट्ठ अणुपरियति ।
है। काम-इच्छा और विषयों को मनोज्ञ समझकर उसका सेवन -आ. सु. १, अ. २, उ. ६, सु. १०५(ख) करता है) इसलिए यह दुःखों का शमन नहीं कर पाता। यह
शारीरिक एवं मानसिक युःखों से दुःखी बना हुआ दुःखों के चक्र
में ही परिभ्रमण करता रहता है। सम्वे एग। बाला ममत्तजुत्ता --
सभी एकान्त बाल जीव ममत्वयुक्त होते हैं६६६. जोवियं पुरोपियं इहमेगेसि माणवाणं खेस-वत्थु ममायमा- ६६६. जो मनुष्य, क्षेत्र (खुली भूमि) तथा वास्तु (भवन) आदि
गाणं। आरतं विरतं मणिकुंबलं सह हिरणेण हस्थियाओ में ममत्व भाव रखता है, उनको यह असंयत जीवन ही प्रिय परिगिज्य सत्येव रत्ता ।
लगता है। वे रंग बिरंगे मणि, कुण्डल, हिरण्य-स्वर्ण और उनके साथ स्त्रियों का परिग्रह कर उनमें अनुरक्त रहते हैं ।