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२४२-१४४
बस वा पतिमाहंसि वा कंबलंसि वा पाववु छर्णसि ना पहरणंसि पर गोवछगंति वा उडुगंसिया डांसि वा पीठया फतवा वा संभारसि वा अनवरत वा सत्यगारे उपगरणजाए तओ संजपामेव पडिले डिलेहि गमज्जय पमज्जिय एगतमवणेज्जा नी संघायमा बज्जेज्नर । - दस. अ. ४, सु. २३
सकाम की हिंसा का निषेध
या हिसानिहो—
२४४. जमाना पुढो पास। "अणगारा मो" त्ति एगे पवयमाणा afari faad सत्येहिं तसकायसमारंभेणं तसका सत्थं समाधाने अग्ने अगे गये पाये विहिंसति ।
सपान हिंसेमा दाया अब कम्युणा । उपर सय पालेज विवि
(मुनि) वचन अथवा कर्म (कार्य) से साथियों को हिसा न करें। समस्त जीवों की हिंसा से उपरत (साधु-साध्वी) विविध - दस. अ. पा. १२ स्वरूप वाले जगत् (प्राणी-जगत) को (विवेकपूर्वक) देखे ।
जयं ॥
जसकादिकों की हिंसा का निषेध
तस्थ खलु भगवता परिष्णा पवेविता-इमस चैव जीवियस्स परिवण-माण पणाए जाती मरण-मोवणाए युक्मारहि वाहे से यमेव तराकायत समारंभति अहवा तरकावसत्यं समारंभावेति, अग्ने वा तावत् समारंभ मागे समति ।
से हिलाए से
आयामी समुहा
सोच्या भगवतो अथपाराणं वा दिए इ भवति एम
अ निरए।
से बेमि
डिएलएम विश्वहिं हिंसक समारंभेणं तसकायसत्थं समारंभमाणे अपने अगस्ये पाणे विि
बारबार २४३
उन्दक - ( स्थंडिल), दण्डक, पीठ पर, या फलक, या शैया संस्तारक पर तथा उसी प्रकार के किसी अन्य उपकरण पर चढ़ जाये तो सावधानीपुर्वक धीमे-धीमे नकद प्रमार्जन कर, उन्हें वहाँ से हटाकर एकान्त में रख दे किन्तु उनका संघात न करे आपस में एक दूसरे प्राणी को पीड़ा पहुंचे वैसे न रखे ।
अति
अजय बघेत असा बस अध्येय एवधेति एवं पिताए बसाए पिच्छा पुच्छाएं बलाए सिंगाए विसावाए एवढा नहाए हारूणीए अडिए,
३४४. तू देख ! ज्ञानी हिंसा से लज्जित विरत रहते हैं । "हम गृह त्यागी हैं" यह कहते हुए भी कुछ लोग नाना प्रकार के शस्त्रों से प्रकायिक जीवों का समारम्भ करते हैं। सकाम की हिंसा करते हुए वे अन्य अनेक प्रकार के जीवों की भी हिसा करते हैं।
इस विषय में भगवान् ने परिशा विवेक का उपदेश किया इसीलियेान के लिए, जन्म, मरण और मुक्ति के लिए, और कुछ का प्रतिकार करने के लिए वह ( तचाकथित साधु) स्वयंत्रकाविक जीवों की हिंसा करता हैं, दूसरों से हिंसा करवाता है करने वाले का अनुमोदन करता है।
भगवान से या गृहत्यागी श्रमणों के समीप सुनकर कुछ मनुष्य एस व मोहे, एस बनु मारे, एस यह जान लेते हैं कि हिंसा ग्रन्थि है, यह मोह, यह मृत्यु है, यह नरक है ।
यह (हिंसा करना, कराना, अनुमोदन करना) उसके अहित के लिए होता है। यह उसकी अवधि के लिए होता है। यह संयमी उस हिना को हिला के परिणामों को सम्प प्रकार से समझते हुए संयम में तत्पर हो जावे ।
फिर भी मनुष्य इस दिया में वक्त होता है। महाना प्रकार के शस्त्रों से प्रकायिक जीवों के समारम्भ में संलग्न होकर कायिक जीवों की हिंसा करता है। वह न केवल नसकायिक जीवों की हिंसा करता है अपितु अन्य नाना प्रकार के जीवों की भी हिंसा करता है ।
मैं कहता हूँ
कुछ मनुष्य अर्चा (देवता की बलि या शरीर के श्रृंगार ) के लिए जीवहिंसा करते हैं। कुछ मनुष्य धर्म के लिए मौस रक्त हृदय (कलेज), पित्त, चर्बी, पंख, पूंछ, केश, सींग, विषाण ( सूअर का दाँत ) दाँत, दाढ़, नख, स्वायु, अस्थि (ही)