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सूत्र ६७१-६७४
समारं एस मग्गे रिएहि पवेबिते जहेत्थ फुसले जोयस पेजासि तिमि । - आ. सु. १, अ. २, उ. २, सु. ७२-७४
तं परिणाम मेहादी
समारं
यह जानकर मेधावी पुरुष पहले बताये गये प्रयोजनों के लिए बऽणं एतेहि सज्जेहि समारंभावे व एते हि स्वयं हिंसा न करे, दूसरों से हिंसा न करनाये वा दिसा करने
वाले का अनुमोदन न करें। यह मार्ग गुरु ने तीर्थकरों ने बताया है। कुशल पुरुष इन विषयों में लिप्त न हों। ऐसा मैं कहता हूँ । लोभ- निषेध -
सोच-जिसेहो
६७२. कसि पि जो इमं लोपं पडिपुष्णं इलेन इक्करस । तैणावि से न संतुस्से व दुप्पूरए इमे आया ॥
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ताहिर कुटिय तह सवि उवयपत्ते ।
जहा लामो तहा लोभो लामा लोभी पवई । बोमासकथं हज्जे, कोडीए वि न निट्ठियं ॥ - उत्त. अ. ८, गा. १६-१७ जीविनकरणे व रोगाके विसपुर ने सहार्दणं संगहजिसेहो
जीवनविनानी रोग होने पर भी बोधादि के संग्रह का निषेध ६७२ मंसिम सुविहिपस्त उ रोगायके यवगारंमि ६९३. सुविहित आगमानुकूल चारित्र का परिपालन करने वाले समुत्पन्ने । साधु को यदि अनेक प्रकार के रोग और आतंक (जीवन को संकट या कठिनाई में डालने वाली व्याधि) उत्पन हो जाय । बाल-पित्त या कफ का अतिशय प्रकोप हो जाय, अथवा सन्निपात (उक्त दी या तीनों दोषों का एक साथ प्रकोप ) हो जाए।
इसके कारण उज्ज्वल अर्थात् सुख के लेशमात्र से रहित प्रबल, विपुल, दीर्घकाल पर्यन्त कर्कश - अनिष्ट एवं प्रगाढ़ अर्थात् अत्यन्त तीव्र दुःख उत्पन्न हो जाये ।
वह दु:ख अशुभ या कटुक द्रव्य के समान (असुख - अनिष्ट रूप हो, परुष (कठोर हो,
सलल बलविडल खडग म
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वि महम्मए जीवितकरणे
-निषेध
सवसरीरपरितारण करे न कपइ तारिसे वि तह अपणो परहस मा ओह-मेल त पाणं च तं पि संनिहिकयं ।
- पण्ड. सु. २, अ. ५, सु. ७
असणाईण संग्रह-नि सेहो ६७४ तहेब असणं पाण वा विविहं खाइन साइमं लमिता । होही अट्ठो सुए परे वा तं न निहे न निहावर जे भिक्खू - दस. अ. १०. गा. ८ समिनिया, सेवमायाए संजए। परखी पलं समादाय, निरवेषखो परिब्वए ।
सवार [४४१
६७२ धन्य धान्य से परिपूर्ण वह समूचा लोक भी यदि कोई किसी को दे दे उससे भी वह सन्तुष्ट हीं होला - तृप्त नहीं होता इतना दुष्पूर (लोभाभिभूत) है यह आत्मा ।
जैसे-जैसे लाभ होता है, वैसे वैसे लोभ बढ़ता है। दो माशा सोने से निष्पन्न होने वाला कार्य करोड़ों (स्वर्ण मुद्राओं) से भी पूरा नहीं हुआ।
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दुःखमय दारुण फल वाला हो,
महान् भय उत्पन्न करने वाला हो, जीवन का अन्त करने बाला हो,
रामग्र शरीर में परिताप उत्पन्न करने वाला हो, तो ऐसा दुःख उत्पन्न होने की स्थिति में भी स्वयं अपने लिए तथा दूसरे साधु के लिए औषध, भैषज्य आहार तथा पानी का संचय करके रखना नहीं कल्पता है । अशनादि के संग्रह का निषेध
६७. पूर्वोक्त विधि से विविध अशन, पान, खाद्य और स्वाद्य को प्राप्त कर कल या परसों काम आयेगा इस विधि से जो न सन्निधि (संचय) करता है और न कराता है-वह भिक्षु है ।
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मंयमीति से लगे उतना भी वहन करेग रखें। पक्षी की भाँति कल की अपेक्षा न रखता हुआ पात्र लेकर - उत्त. अ. ६, गा. १५ भिक्षा के लिए पर्यटन करे ।