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चरणामुयोग
रति-अरति निषेध
सूत्र ६७६-६८१
जहा से दीये असंवीणे एवं से धम्मे आरियायेसिए ।
जैसे असंदीन (जल में नहीं डूबा हुआ) द्वीप आश्वासनस्थान होता है. वैसे ही आयं (तीर्थकर) द्वारा उपदिष्ट धर्म
(संसार-समुद्र पार करने वालों के लिए आश्वासन-स्थान) होता है। ते अणवखमाणा अपतिवातेमामा बहता मेधाविणो पंडिता। मुनि आकांक्षा तथा प्राण-बध न करने के कारण लोक
मेधावी और पटिरत कहे जाते हैं। एवं तेसि भगवतो अगुदाणे जहा से रियापोते । एवं ते सिस्सा जिस प्रकार पक्षी के बच्चे का पालन किया जाता है उसी विषा य अणुपुग्वेण थायित ।
प्रकार धर्म में जो अभी तक अनुत्थित है, उन शिष्यों का वे --आ. सु. १, अ. ६, उ. ३, स. १५. (महाभाग-भार्य करा. दाणा र दिन-रात पालन
(संवर्दन) करते हैं। अरति आउट्ट से मेधावी खणसि मुक्के।
जो अरति (वैतसिक उद्वेग) का निवर्तन करता है, वह -आ. सु. १. अ. २, उ. २, सु. ६६ मेधावी होता है। रह-अरइ णिसेहो
रति-अरति-निषेध६८०. जे ममाइपति जहाति से जहाति ममाइयं ।
६८०. जो ममत्व बुद्धि का त्याग करता है, वह ममत्व का त्याग
करता है। से हु विटुप मुणी जस्स गस्थि ममारतं ।
वही दृष्ट-पथ (मोक्ष मार्य को देखने वाला) मुनि है, जिसने
ममत्व का त्याग कर दिया। तं परिणाय मेहाबी विदिता सोगं, वंता लोयसम्णं से मतिमं उस को (उक्त दृष्टिबिन्दु को) जानकर मेधावी लोकस्वरूप परफमेज्जासि ति बेमि।
को जाने । लोक-संज्ञा का त्याग करे, तथा संयम में पुरुषार्थ करे। वास्तव में उसे ही मतिमान (बुद्धिमान) पुरुष कहा गया है
ऐसा मैं कहता हूँ। गारति सहति वीरे, वीरे णो सहति रति ।
वीर साधक अरति (संयम के प्रति अरुचि) को सहन नहीं जम्हा अविमणे वारे तम्हा वीरे ग रस्मति।
करता, और रति (विषयों की अभिरुचि) को भी सहन नहीं करता । इसलिए वीर इन दोनों में ही अविमनस्क-स्थिर-शान्त.
मना रहकर रति-अरति में आसक्त नहीं होता। सहे फासे अधियासमाणे णिबिन वि इह जीवियरत । मुनि शब्द (रूप, रस, गन्ध) और स्पर्श को सहन करता -आ. सु. १, अ. २, स. ६, सु. ६४-६(क) है। इस असंयमी जीवन में होने वाले आमोद-प्रमोद आदि से
विस्त होता है। भिक्खुणा न रद कायस्वा, न अर कायव्या
भिक्ष को न रति करनी चाहिए और न अरति करती
चाहिए६८१, अरति रति च अभिभूय मिक्बू,
११. साधु संयम में अरति (अरुचि) और असंयम में रति बहूजणे वा तह एाचारी। (रुचि) को त्यागकर बहुत से साधुजनों के साथ रहता हो या एगंतमोणेण विगरेज्जा,
अकेला रहता है । जो बात मौन (मुनिधर्म या संयम) से सर्वथा एगस्स मंतो गतिरागती य ।। अविरुद्ध हो, वही कहे। (यह ध्यान रखे कि) जीवं अकेला ही
जाता है, और अकेला ही आता है। सघं समेचा अदुवा वि सोच्या,
___ स्वयं जिनोक्त धर्म (सिद्धान्त) को भलीमांति जानकर अथवा मासेज्ज धम्मं हितवं पपाणं। दूसरे से सुनकर प्रजाओं (जनता) के लिए हितकारक धर्म का जे गहिया सणियाणपोया,
उपदेश दे। जो कार्य निन्द्य (गहित) है, अथवा जो कार्य निदान सागि सेवंति सुधीरधम्मा ॥ (सांसारिक फलाकांक्षा) सहित किये जाते हैं, मुधीर वीतराग ---सूय. सु. १, अ. १३, गा.१५-१६ धर्मानुयायी साधक उनका सेवन नहीं करते।