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अनासक्त ही मरण से मुक्त होता है
पारिभाधार
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अणासत्तो एव मरणा मुच्चा
अनासक्त ही मरण से मुक्त होता है६५४. रामन्यु वसोवणीत गरे सततं दे धम्मं पाभिजाणति । ६५४. बुढ़ापे और मृत्यु के दश में पड़ा हुआ मनुष्य (देहादि की पातिय आतुरे पामे अप्पमसो परिवए।
आसक्ति से) सतत मूह बना रहता है। वह धर्म को नहीं जान सकता । (आसक्त) मनुष्यों को शारीरिक-मानसिक दुःखों से
आतुर देखकर साधक सतत अप्रमत्त होकर विचरण करे । मंता एवं मतिमं पास,
हे मतिमान् ! तू मननपूर्वक इन प्राणियों को देख । आरंभ क्समिणं ति णबा,
यह दुःख आरम्भजण्य (पाणी) हिसाजनित है, यह जानकर
तू-अप्रमत्त बन) मायी पमायो पुगरेति गम्म।
मायरी और प्रमादी मनुष्य बार-चार जन्म लेता है। उवेहमाणो सह-सवेमु अंजू माराभिसकी मरणा पमुख्यति । शब्द और रूप आदि के प्रति जो उपेक्षा करता है-(राय-आ. सु. १, अ. ३, उ. १, सु. १०८ ष नहीं करता है) वह ऋज़ होता है जो मृत्यु के प्रति सथा
आशंकित (सतक) रहता है और मृत्यु (के भय) से मुक्त हो
जाता है। अचासत्तो एव सव्वहा अहिसओ प्रवद
आसक्त ही हमेशा अहिंसक होता है१५५. आसेषिता एएमळू इच्चेवेगे समुड़िता।
६५५. कई व्यक्ति असंयम का आचरण करके अंत में संयमसाधना से संलग्न हो जाते हैं अतः वे पुनः इसका सेवन नहीं
करते हैं। सम्हात विदर्य मासेवते णिस्सारं पासिय गागी।
हे ज्ञानी ! विषयों को निस्सार देखकर (तू केवल मनुष्यों के जषवाम चयणं णया, अणण्णं पर माहले।
ही जन्म-मरण नहीं) देवों के उपपात (जन्म) और व्यबन (मरण) निश्चित हैं, वह जानकर हे महान् ! तू अनन्य (संयम
या मोक्ष मार्ग) का आचरण कर। से ण छगे, म छणापा, छर्गत पाणुजापति ।
वह (संयमी मुनि) प्र.णियों की हिंसा स्वयं न करे, न दूसरों
से हिंसा कराए और न हिंसा करने वाले का अनुमोदन करे। गिम्बिर वि अरसे पयासु ।
तु (कामभोपजनित आमोद-प्रमोद से विरक्त होकर) स्त्रियों
में अनुरक्त मत बन । अगोमवंसी पिसरणे पावहि कम्महि ।
परम उच्च को देखने वाला पाप कमों में उदासीन रहता है। -आ. सु. १, अ. ३, उ. २, मु. ११३ कामभोगेसु अगिडो णियंठो
कामभोगों में अनासक्त निर्ग्रन्थ६५६. मण्णातपिशेणऽधियासएग्जर, नो पूपणं तवसा आवहेज्जा। ६५६. मुनि अज्ञातपिण्ड (अपरिचित घरों से लाये हुए सदेहिबेहि असण्जमाणे, सध्वहिं कामेहि विणीय गेहि ।। भिक्षान) में अपना निर्वाह करे, तपस्या के द्वारा अपनी पूजा
प्रतिष्ठा की इच्छा न करे, शब्दों और रूपों में अनासक्त रहता
हुआ समस्त काम-भोगों से आसक्ति हटाये । सम्बाई संगाई मान्य धीरे, सम्या बुरखा तिसिमयमाणे। घीर साधक सर्वसंगों को त्याग कर, सभी दुःखों को सहन अखिले अगि मणिएपचारी, अभयंकरे भिक्षू अमाविलप्पा ॥ करता हुया वह अखिल (ज्ञान-दर्शन-मारित्र मे पूर्ण) हो, अनासूय. सु. १, ब.७, गा. २७-२८ सक्त (विषयभोगों में अनासक्त हो) अनियतचारी, अप्रतिबद्ध
बिहारी (और अभयंकर) जो न स्वयं भयभीत हो और न दूसरों को भयभीत करे (तथा) निर्मल चित्तवाला हो ।