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सम४५६-४५८
ब्रह्मचर्य के सहायक
चारित्राचार
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हम छ रति-राग-दोस-मोह-पयड्ढणकर, कि मज्ज-पमाय- ब्रह्मचर्य का अनुपालन करने वाले पुरुष को इन आगे कहे दोस-पसत्थ-सोलकरणं, अभंगणाणि य, तेस्ल-मजणाणि जाने वाले व्यवहारों का त्याग करना चाहिए--विषयराम, स्नेहय, अभिषणं कक्ख-सीस-कर-चरण-ववण घोषण-संबाहण- राग, द्वेष और मोह की वृद्धि करने वाला, निस्सार प्रमाददोष गायकम्म-परिमद्दणाणुलेवण-चलवास-धूवण-सरीरपरिमंडण- तथा पार्श्वरथ-शिथिलाचारी साधुओं को शील-आचार, (जैसे चाउसिक हसिप-मणिय-नट्ट-गोय-वाइय-नव-नट्टक-जल-मल्ल- निष्कारण शरमातर पिण्ड का उपभोग आदि) धुतादि की मालिश पेच्छण-बेलंचक जाणि ब सिगारागाराणि ५ ।
करना, तेल लगाकर स्नान करना, बार-बार बगल, शिर, हाथ पैर और मुंह धोना, मर्दन करना, पर आदि दबाना, पगचम्पी करना, परिमर्दन करना, समग्र शरीर को मलना, विलेपन करना, चूर्णवास-सुगन्धित चूर्ण-पाउडर से शरीर को सुवासित करना, अगर आदि का धूप देना, शरीर को मण्डित करना, सुशोभित बनाना, बाकुशिक कर्म करना, नखों, केशों एवं वस्त्रों को संवारना आदि, हँसी ठठ्ठा करना, विकारयुक्त भाषण करना, नाट्य, गीत, वादित्र, नटों, नुत्यकारों और जल्लों-रस्से पर खेल दिखलाने वालों और मल्लों-कुश्तीबाजों का तमाशा देखना जो
शृगार का आगार -घर है। अन्नाणि य एवमाविधायितब-संजम-यंभचेर घासावधातियाई तथा इसी प्रकार अन्य बातें जिनसे तपश्चर्या, संयम एवं अणुचरमाणेगं बंभरं वज्यवाई सम्वकालं ।
बह्मचर्य का उपघात-आंशिव विनाश या घात–पूर्णतः विनाश -प. सु. २, अ.४, सु. ५ होता है, ये ब्रह्मचर्य का आचरण करने वाले को सदैव के लिए
त्याग देना चाहिए। बंभोर सहायगा
ब्रह्मचर्य के सहायक४१७. मषियको भवह य अंतरप्पा, इमे हि तव-नियम-सौल-जोगेहि ४५७. इन त्याज्य व्यवहारों के बर्जन के साथ आगे कहे जाने निकालं।
वाले व्यापारों से अन्तरात्मा को भावित-वासित करना चाहिए। प०कि?
प्र-ये व्यापार कौन से है ? 3०-अण्हाणक-अवतघावग-सेय-मल-जल्लघारणं, मूणषय- उ.-(वे ये हैं। स्नान नहीं करना, दन्तधावन नहीं करना,
केसलोए य, सम-बम-अचेलग-पिवास, लायब- स्वेद (पसीना) धारण करना, जमे हुए मा इससे भिन्न मैल को सितोसिण-कटुसेज्जा, भूमि-नि सेग्जा, परधरपयेस- धारण करता, मौनव्रत धारण करना, केशों का लुच्चन करना, लुद्धायलद्ध-माणावमाण-निदण-स-मसग-कास-नियम- क्षमा, दम-इन्द्रियनिग्रह, अचेलकता-वस्त्ररहित होना अथवा तय-गुण-विणयमाविरहि जहा से घिरतरक होइ अल्प वस्त्र धारण करना, भूख-प्यास सहना, लापब- उपाधि अल्प संमचेरं। -. सु. २, अ. ४, सु.६ रखना, सर्दी गर्मी सहना, काष्ठ की शय्या, भूमिनिषद्या जमीन पर
बासन, परगृहप्रवेश-शय्या या भिक्षादि के लिए गृहस्थ के घर में जाना और प्राप्ति या अगाप्ति (को समभाव से सहना) मान, अपमान, निन्दा एवं दंघमशक का स्लेश राहन करना, नियम अर्थात् द्रव्यादि सम्बन्धी अभिग्रह करना, तप तथा मूलगुण आदि एवं विनय (गुरुजनों के लिए अम्मुत्थान) आदि से अन्तःकरण को
भावित करना चाहिए, जिससे ब्रह्मचर्यव्रत खूब स्थिर-दृढ़ हो । बैंभर आराहणा फलं
ब्रह्मचर्य की आराधना का फल४५८ मंच प्रबंभचेरविरमण-परिक्सपट्टयाए पाययण भगत्रया ४५८. अब्रह्मनिवृत्ति (ब्रह्मचर्य) व्रत की रक्षा के लिए भगवान
सुकहिय, अत्तहियं पेच्ना भाविक, आगमेसि मई, पुर्व, महावीर ने यह प्रवचन कहा है। यह प्रवचन परलोक में फलनेआउयं, अकुडिलं, अणुतरं, मवानुमक-पावाण विउसवर्ग। प्रदायक है, भविष्य में कल्याण का कारण है शुद्ध है, न्याययुक्त
-प. सु. २, अ.४, सु.७ है, कुटिलता से रहित है, सर्वोत्तम है और दुःखों और पापों को
उपयान्त करने वाला है।