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चरणानुयोग
गृहस्थ से शल्प चिकित्सा नहीं कराना चाहिए
सूत्र ३६०-३६५
से से परी कायंसि गंडं वा जाब-भगवलं वा लोटेण वा यदि कोई गृहस्थ, माधु के शरीर में हुए गड-पावत्कक्फेण वा खुपणेण वा वणेण या उल्लोलेज्ज वा उग्यदृज्ज भगन्दर पर लोध कल्क चूर्ण या वर्ण का थोड़ा या अधिक विले. वा, जो तं सातिए, णो त णियमे ।
पन करे तो साधु उसे मन से भी न चाहे, व वन एवं काया से
प्रेरणा भी न करे। से से परो कार्यसि गई वा-जान-भगवलं था सोसोदधियण यदि कोई गृहस्थ, मुनि के शरीर में हुए गण्ड-यावत्या सिणोयमवियण बा उग्छोलेज वा पधोएज्ज वा, णो गगन्दर को प्रामुक शीतल या उष्ण जल से थोड़ा या बहुत धोये सातिए, यो त णियमे ।
तो साध उसे मन से भी न चाहे, वचन एवं काया से प्रेरणा
तो साधु उस में -आ. सु. २, अ.१३, सु. ७१५-०११ भी न करे । मिहत्येण सलगच्छा न कायध्या
गृहस्य से शल्य चिकित्सा नहीं कराना चाहिए३६१. से से परो कार्यसि गंड वा-जाब-भगंबलं वा अग्णतरेणं सत्य. ३६१. यदि गृहस्थ मुनि के शरीर में हुए गण्ड-यावत्-भगन्दर
आतेणं अपिछवेज्ज वा, विच्छिवैज्ज वा, अन्नतरेणं सत्यजातेणे को किसी विशेष शस्त्र से थोड़ा-सा छेदन करे या विशेष रूप से आमिछदिसा वा विच्छिवित्ता या पूर्व वा सोणियं का णीह छेदन करे अथवा किसी विशेष गस्त्र से थोड़ा-सा या विशेष रूप रेज वा विसोहेम वा, गो तं सातिए, णो तं णियमे से छेदन करके मवाद मा रक्त निकाले या उसे साफ करे तो -आ. सु. २, अ. १३. सु. ७२० साधु उसे मन से भी न चाहे, वचन एवं काया से प्रेरणा
भी न करे। गिहत्थेप घेयावच्चं न काय
गृहस्थ से बैयावृत्य नहीं कराना चाहिए३६२. से से परो सुरेणं वा यसलेगं तेइच्छं आउट्ट, से से परो ३६२. मदि कोई गृहस्थ शुद्ध बाग्बल (मन्त्रबल) से साधु की
असुरंग बश्यलेणं तेइन्छ आउट्टे से से परो गिलाणस्स चिकित्सा करनी चाहे अथवा गृहस्थ अशुद्ध मन्त्रबल से साधु की सचिताई कदाणि वा मूलाणि वा तयाणि या हरियाणि वा व्याधि उपशान्त करना चाहे अथबा वह गृहस्थ किसी रोगी खगिस् वा कड्वेत्तु या कहावेत्तु वा तेइन्छ आउटेज्जा णो साधु की चिकित्सा सचित्त केन्द, मूल, छाल या हरी को खोदकर तं सातिए, जो त गियी।
या वींचकर बाहर निकालकर था निकलवाकर चिकित्सा करना 'चाहे, तो साधु उसे मन से भी न नाहे, वचन एवं काया से प्रेरणा
भी न करे। कडधेयण कषेपणा पाण-भूत-जीव-सत्ता वेदणे वेति । यदि साधु के शरीर में कठोर वेदना हो तो (यह विचार कर -आ. सु. २, अ. १३, तु. ७२८ उसे समभाव से सहन करे कि) समस्त प्राणी, भूत, जीव और
सत्व अपने किये हुए अशुभ कर्मों के अनुसार कटुक बेदना का
अनुभव करते हैं। गिहस्थकय सिगिच्छाए अणुमायणा णिसेहो
गृहस्थकृत चिकित्सा की अनुमोदना का निषेध३६. से से परो पावाओ पूर्व वा सोणियं वा णोरेज वा बिसो- ३६३. यदि कोई गृहस्थ साधु के पैरों में पैदा हुए रक्त और हेज्जया, पोतं सातिए को तं णियमे ।
मबाद को निकाले या उसे निकाल कर शुद्ध करे तो वह उसे न -आ. गु. २, अ. १३, सु. ७०० मन से भी चाहे, वचन एवं काया से प्रेरणा भी न करे । गिहत्थाय खाणुयाइणिहरण अणुमोयणा णिसेहो- गृहस्थ द्वारा लूंठा आदि निकालने की अनुमोदना
का निषेध-- ३६४. से से परो पाबाओ खागुयं वा, कंटयं वा, णोहरेज्ज वा, ३६४. यदि कोई गृहस्थ माधु के पैरों में लगे हुए काटे आदि को विसोहम वा, णो त सातिए वा, णो त णियमें। निकाले था उसे शुद्ध करे तो वह उसे मन से भी न चाहे, वचन
-आ.सु. २, . १३, सु. ६६६ एवं काया से प्रेरणा भी न करे । गिहस्थकय लिक्खाइ णिहरणस्स अणुमायणा णिसेहो-- गृहस्थ द्वारा लीख आदि निकालने की अनुमोदना का निषेध३६५. से से परोसीसातो लिषय वा जूयं वा गोहरेज वा विसा- ६६५. यदि कोई गृहस्य साधु के सिर से जू या लीख निकाले, या हेज वा जो तं सातिए, गोतं णियमे ।
सिर साफ करे, तो वह उसे न मन से भी चाहे, वचन एवं काया -आ. मु. २, अ. १३, सु. ७२४ से प्रेरणा भी न करे।