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बरगानुयोग
उपसहार
पूर्व ४३२-४॥४
पंचमक-हासंन सेवियज्य।
पंचम-किसी की हसी नहीं करनी चाहिए, हंसी-मजाक अलियाई मसंतकाई पति हासरसा।
करने वाले ही असत्य वचन और अशोभन वचन बोलते हैं। १. परपरिमवकारणं चहासं ।
(१) हास्य दूसरे के पराभव का कारण होता है। २. परपरिवायपियं व हास।
(२) हास्य पर-निन्दा प्रधान होता है। ३. परपोलाकारगं व हास ।
(३) हास्य पर-पीड़ाजनक होता है। ४. मेव विमुक्तिकारगं च हास ।
(४) हास्य से चारित्र का भंग और विकृत मुख होता है। ५. अमोजमणि होम्स हास ।
(५) हास्य परस्पर (एक दूसरे के साथ) होता है। ६. अन्नोऽनगमगं च होज्न मम्मं ।
(६) हास्य से (एक दूसरे के) ममं प्रकट होते हैं । ७. अनोऽनगम होज्न कम्म ।
(७) हास्य लोकनिन्छ कर्म है। ८. कंदापाभियोगगमगं व होऊज हास ।
(4) हास्य से (साधु की) कान्दपिका और वाभियोगिक
देवों में उत्पत्ति होती है। ६. वासुरिय किजिससणं जव पहातं । तम्हा हासन (९) हास्य से (साधु की) असुर और किल्पिषिक देवों में सेपियन् ।
उत्पत्ति होती है, इसलिए किसी को हँसी नहीं करनी चाहिए। एवं मोगेण माविमो मवड़ अंतरपा।
इस प्रकार जिसका अन्तरात्मा मौन से भावित होता है संजम-कर-चरण मयग-अयण प्ररो सम्मानवसपनो। उसके हाथ, पैर, नेत्र एवं मुख संयत हो आसे है तथा वह मौर्य
-प.सु. २, अ. २, सु. ११-१५ एवं सरल सत्य से परिपूर्ण हो जाता है। उपसंहारो
उपसंहार४३३. एवमि संघरस्स बार सम्म संवरियं हो सुपणिहियं । ४३३. इस प्रकार मन, वचन और काय से पूर्ण सुरक्षित-सुसेवित
इमेहि पंचहिं वि कारहिं मम-बयण-काय-परिरपिखएहि इन पांच भावनाओं से संवर का यह बार-सस्थमहावत सम्यक निच्च बामरमतं च एस जोगो गेयध्वो घितिमया मतिमया प्रकार से संवृत-आचरित और सुप्रणिहित- स्थापित हो जाता अजासवो अकसुसो अच्छिडो अपरिस्सावी असंकिसिठ्ठो सब है । अतएव धैर्यवान तथा मतिमान् साधक को चाहिए कि वह जिगमगुण्णायो।
आस्मय का निरोध करने वाले, निर्मल, निश्छिद्र -कर्म-जल के प्रवेश को रोकने वाले, फर्मबन्ध के प्रवाह से रहित, संक्लेश का अभाव करने वाले एवं समस्त तीर्थंकरों द्वारा अनुज्ञात इस योग
को निरन्तर जीवन पर्यन्त आवरण में उतारे। एवं वितिय संबरवार कासिय पालियं सोहिय तीरिवं इस प्रकार (पूर्वोक्त रीति से) सत्य नामक संवरद्वार यथाकिष्ट्रिय अनुपातिय आणाए आराहिय भवइ ।
समय अंगीकृत, पालित, शोधित-निरतिचार भाचरित या शोभाप्रदायक, तीरित-अन्त तक पार पहुंचाया हवा, कीर्तितदूसरों के समक्ष आदरपूर्वक कथित. अनुपालित - निरन्तर सेषित
और भगवान् की आज्ञा के अनुसार आधारित होता है। एवं मायमुणिमा भगवया पन्नवियं पकमियं पसिद्ध सिबर- इस प्रकार भगवान् ज्ञातमुनि -महावीर स्वामी ने इस सामणमिणं आधषियं सुदेसिय पसत्य ।
सिद्धवरशासन का कथन किया है, विशेष प्रकार से विवेचन किया -प. सु. २, अ. २, सु. १६-१८ है । यह तर्क और प्रमाण से सिद्ध है, सुप्रतिष्ठित किया गया है,
भव्य जीवों के लिए इसका उपदेश किया गया है, यह प्रशस्त
कल्याणकारी-मंगलमय है। छम्हं अबयणाइणं निसेहो
नहीं बोलने योग्य छ: वचनों का निषेध४३४. नो कम्पह निरगंमाण का निणंयोग वा
४३४. निर्ग्रन्थों और मिग्रंस्थियों को ये छह कुबचन बोलना नहीं इमाइ अवयगा बहत्तए, तंगहा
कल्पता है । यथा