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सूत्र ४३२
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मृषावाव-विरमग या सस्य महावत को पांच मावना
धारिघाचार
ततियं-लोहो न सेवियवो
.. १. सुखो लोलो भगेज्ज अलियं, खेत्तस्स व वायूस्त वकएण।
तृतीय लोभ नहीं करना चाहिए. लोभी लालची मनुष्य
(१) क्षेत्र और वास्तु (मकान आदि) के लिए मिथ्या भाषण करता है।
(२) कीति और लोभ के लिए मिथ्या भापण करता है।
२. सुखो लोलो मञ्ज . अलियं, किसीए. व. सोमरस व
(३) ऋद्धि और सुख के लिए मिथ्या भाषण करता है।
.. सुबो लोलो मगज अखियं, रिसीए व लोक्खस्स व करण। ४. खुद्धो सोलो भ गेज्ज अलियं, भत्तास व पागसब करण। ५. लुखो लोलो भणेन्ज अलियं, पीठस्स व फलगरस व फएण । ६. सुद्धो लोलो भणेज्ज अलियं, सेनाए व संथारगम्स वे कएण। ७. खंडोमणेज आंसद स्थान पर
(४) भोजन और पान के लिए मिथ्या भाषण करता है। (५) पीढ़ा और फलक के लिए मिथ्या भाषण करता है। (६) शय्या और संस्तारक के लिए मिथ्या भाषण करता है।
(७) वस्त्र और पात्र के लिए मिपा भाषण करता है।
'८, सुयो लोलो पगेज्ज अलियं, कंबलस्स व पाय पुंछस्स (1) कम्बल और पाद पोंछन के लिए मिथ्या मारण कएण।
करता है। १. सुबो लोलो भणेकज अलियं, सोसम्स व सिस्सीणीएव () गिप्य और शिल्या के लिए मिथ्या भाषण करता है। ... करण ।
खुदो लोलो भणेज्ज. अलियं, अग्नेस य.एवमारिसुबहसु .इत्यादि अनेक कारणों से लोभी मिथ्या भाषण करता है, कारण-सएच. तम्हा लोभो न सेवियच्यो। .. इसलिए लोभ नहीं करना चाहिए। एवं पुत्तीए माविओ भयह अन्तरपा। संजय कर-चरण- इस प्रकार जिसका अन्तरात्मा मुक्ति (निर्लोभता) से भावित नयण-बघणपूरो सरववज्जवसंपनी।
होता है उसके हाथ, पैर, नेत्र एवं मुख संयत हो जाते हैं, लथा
शौर्य एवं सरल-सत्य से परिपूर्ण हो जाता है । चजस्थं न भाइयव्य--.
चतुर्थ- भयभील नहीं होना चाहिए, १. भीतं खु भया अईति ललयं । ..
(१) भयभीत को शीघ्र ही अनेक भय उपस्थित हो
जाते है। २. भीतो अवित्तिजनो मणूसो।
(२) भयभीत की कोई नहायता नहीं करता है, ३. मौतो भूहि धिप्पइ ।
(३) भयभीत को भूत-प्रेत लग जाते हैं, ४. भीतो अम्नं पिछ मेसेज्जा ।
(४) भयभीत मनुष्य दूसरों को भी भवमीत करता है, ५. पीसो तब-संजम पि. मुएज्जा ।
(५) भयभीत मनुष्य तप-संयम को भी त्याग देता है, ६. मोतो य मरं न मित्परेज्जा ।
(६) भयभीत मनुष्य भार वहन नहीं कर सकता, ७. सप्पुरिस-मिसेवियं च मग मीतो न समस्यो अणुचरिउ । (७) भयभीत मनुष्य सत्पुरुषों द्वारा सेवित मार्ग पर अग्रसर
नहीं हो सकता है। तम्हा न भाध्य भयरस वा, वाहिस्स. श्रा, रोगरस या, अतएव भव से, व्याधि से रोग से, जरा से, मृत्यु से तथा पराए वा, मन्चस्स वा अन्नस वा एबमाइयल्स । .. अन्य किसी भय के हेतु से भयभीत नहीं होना चाहिए। एवं धेज्जेण भाषिओ भवइ अन्तरप्पा ।
इस प्रकार जिसका अन्तरात्मा धैर्य से भावित होता है उसके संजय-कर-चरण-नयण-स्यण-मूरो समनबज्जवसंपन्नो। हाथ, पैर, नत्र एवं मुख संयत हो जाते है तथा बढ़ शोयं एवं
सरल सत्य से परिपूर्ण हो जाता है।