________________
सूत्र ४४०-४४१
वत्त अमुमत संबर का फल
चारित्राचार
(३०५
अवत-बास बुभ्यस-गिलाग-युत- खबग-यत्तम-आय- जो अत्यन्त वाल, दुर्बल, रुग्ण, एट और मासक्षषक आदि रिय-बसाए, सेहे साहम्मिए, तबस्सी, कुल-गण-संघ- तपस्वी साधु की, प्रवर्तक, आचार्य, उपाध्याय की, नवदीक्षित चेय?।
साधु की तथा सार्मिक-लिंग एवं प्रबचन से समानधर्मा साधु की, तपस्वी कुल. गण, संघ के चित्त की प्रसन्नता के लिए सेवा
करने वाला हो, निम्नरट्री वेयावनचं अणिस्सियं बहुविहं इसविहं जो निर्जरा का अभिलाषी हो-कर्म क्षय करने का इच्छक करे।।
हो, जो अनिश्रित हो अर्थात् यशकीर्ति नादि की कामना न करते हुए दूसरे पर निर्भर न रहता हो. वही दस प्रकार का वैयावृत्य,
(अन्नपान आदि अनेक प्रकार से) करता है। १. न प अचियत्तस्स गिहं पविसाइ।
(१) वह अप्रीतिकारक गृहस्थ के कुल में प्रवेश नहीं करता। २. न य अधियत्तस्स गेहह मत्त पाणं ।
(२) अप्रीतिकारक के घर का आहार-पानी ग्रहण नहीं
करता है। ३. भ प अचियत्तस्स सेवह पीट फलग-सेन्जा संघारग- (३) अप्रीतिकारक ने पीठ, पलक, शय्या, संस्तारक, वस्त्र, वस्थ-वाम कंवल-उंग-२यहरण-निसेज्ज-बोलण्टन- पात्र, कम्बल, दण्ड, रजोहण, आसन, चोलपट्ट, मुखबस्त्रिका महपोसिप-पायपुंछणाइ-मायण-मंडोवहि-उवगरणं एवं पादपोंछन भाजन भष्ट उपकरण आदि उपधि भी नहीं लेता है। ४. न य परिवायं परस्स जपति ।
(४) वह दूसरों की निन्दा (परपरिवाद) नहीं करता। ५. न यावि बोसे परस्स गेहति ।
(५) दुसरे के दोषों को ग्रहण नहीं करता है। ६. परववएसेपानि किचि गेहति ।
(E) जो दूसरों के नाम से (अपने लिए) कुछ भी ग्रहण
नहीं करता। ७, न य विपरिणामेति किंचि जणं ।
(७) किसी को दानादि धर्म से विमुख नहीं करता। ८.न यादि पासेड दिन्न-सुकयं ।
(८) दूसरे के दान आदि का सुकृत अथवा धर्माचरण का
अपनाप नहीं करता है। १. राऊण य न होइ पच्छाताबिए।
(६) जो दानादि देकर और यावत्य आदि करके पश्चात्ताप
नहीं करता है। १०. संविभागसीसे।
(१०) आचार्य, उपाध्याय आदि के लिए संविभाग करने
वाला। ११. संगहोवाहकुसले से सारिसए आराहे वयमिणी (११) संग्रह एवं उपकार करने में कुशल साधक ही अस्तेय
-पण्ह. सु. २. अ. ३, सु. प्रत का आराधक होता है। त्तमणुष्णाय संवरस्स फलं
दत्त अनुज्ञात संवर का फल४४१. इमं च रवव्वहरण-बेरमण-परिरक्षणपाए पावणं भग- ४४१. परकीय दृष्य के हरण से विरमण (निवृत्ति) रूप इस
यया सुकहियं अत्तहियं पेच्चाभाविय आगमेसिमद सय अस्तेयवन की परिरक्षा के लिए भगवान् तीर्षकर देव ने यह नेपा.य अकुडिल अणुसरं सख्खनुस्खपायाग-विनोवसमणं। प्रवचन समीचीन रूप से कहा है। यह प्रवचन आत्मा के लिए -पण्ह. सु. २, अ. ३, सु.६ हितकारी है, आगामी भव में शुभ फल प्रदान करने वाला है
और भविष्यत् में कल्याणकारी है। यह प्रवचन शुद्ध है, न्याययुक्ति-तर्क से संगत है, अकुटिल-मुक्ति का सरल मार्ग है, सर्वोत्तम है तथा समस्त दु.खों और पापों को निश्शेष रूप से शान्त कर देने वाला है।