________________
(२४५२-४५३
महाचर्य को संतीस उपमाएँ
चारित्राचार
३१७
अजवसाहुजणारितं
यह सरल साधृजनों द्वारा आचरित है। मोखमप, विमुख-सिद्धिगति-निलयं,
यह मोक्षमार्ग है, विशुद्ध सिद्ध गति का स्थान है। मासपमध्वाधामपुगगमवं, पसत्य, सोम, सुभ, सिवमयलम- यह शाश्वत है, क्षुधादि पीड़ाओं से रहित है और पुनर्भब पखयकर,
को रोकने वाला है, प्रधास्त है, भगलमय है, सोम्य है, शुभ
अघबा सुखरूप है, शिव है, अचल है, अक्षयकारी है। जतिवर सारविक्षत, सुचरियं, सुसाहियं,
इस ब्रह्मचर्य का यतिवरों ने सम्यक् प्रकार से रक्षण किया है, सम्यक् प्रकार से आचरण किया है, सभ्यक प्रकार से
कहा है। नवरं-मुणिवरेहि महापुरिस-धीर-सूर-धम्मिय-धितिमंताण विशेष-उत्तम मुनियों ने, महापुरुषों ने, धीर, शूरवीरों य सया विसुद्ध,
मे, धार्मिक पुरुषों ने, धैर्यवानों ने इस ब्रह्मचर्य का सदा, याव
ज्जीवन पालन किया है। मव्व सम्बमबजणाधिन निस्संकियं निउभयं, नित्तुसं, यह व्रत निर्दोष है, कल्याणकारी है, भव्यजनों ने इसका निरायास, निश्वलेवं,
आचरण किया है, यह शंका रहित है, भय रहित है, तुषरहितस्वच्छ-तन्दुल के समान खेद के कारणों से रहित है, पाप के लेप
से रहित है। निवृतिपरं, नियम, निस्पकंपं सव-संजम-मूल-वलिप-लेम्म, निवृत्ति—गन का मुक्ति गृह है, नियमों से निश्चल है, तप
संयम का मूल है। पंच महत्वय-सुरक्खि, समिति-गुत्तिगुप्त,
पंच महाव्रतों से सुरक्षित है, समिति गुप्ति से युक्त है। शाणवरकवासुफ यं, अजाप्पविनफलिह,
उत्तम ध्यान के लिए कपाट के पीछे मध्य भाग में दी हुई
अर्गला के समान है। संनडोमछाय-दुग्गहपह, सुगहपहबेसगं च, लोगुत्तमं च। यह व्रत दुर्गति के मार्ग को अवरुद्ध करने वाला है और
-प. सु. २, ३, ४, सु. १ सुगति का पथदर्थक है । यह व्रत लोक में उत्तम है। देवाणवगन्धब्बा जक्ख-रक्खस-किन्नरा ।
ब्रह्मचारी को देव, दानव, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और किन्नर घम्भयारि नमंसन्ति, बुक्करं जे करन्ति तं ॥
ये सभी नमस्कार करते हैं, जो दुष्कर ब्रह्मचर्य का पालन
--उत्त. म.१६, गा.१५ करता है। बंभचेरस्स सत्ततीस उवमानो
ब्रह्मचर्य की सैंतीस उपमाएँ४५३. १. वयमिग एउमसर-तलाग-पालियं,
४५३. (१) यह व्रत कमलों से सुशोभित सरोवर और तालाब के समान धर्म की पाल के समान है अर्थात् धर्म की रक्षा करने
वाला है। २. महासगह-अगत्यभूमं,
(२) किसी महाशकट के पहियों के आरों के लिए नाभि के
समान है। ३. महाविरिम-ख-खंधभूम,
(३) यह व्रत किसी विशाल वृक्ष के स्कन्ध के समान है,
धर्म का आधार ब्रह्मचर्य है। ४. महानगर-पागार-बाज-फसिहभूयं,
(४) यह व्रत महानगर के प्राकार-परकोटा के कपाट की
अर्गला के समान है। ५. रज्जु-पिणिद्धो व ईककेतू विसुजणेग-गुण-संपणिवं। (५) डोरी से बंधे इन्द्रश्वज के सदृश है। उसी प्रकार
अनेक गुणों से समृद्ध ब्रह्मचर्य है। ६. गहगण-मक्खत-तारगाणं जहा उड़बई ।
(६) जैसे ग्रहगण नक्षत्र और तारागण में चन्द्रमा प्रधान होता है, उसी प्रकार समस्त व्रतों में ब्रह्मचर्य प्रधान है।