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प्रथम महावत का परिशिष्ट
चारित्राचार
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प्रथम महाव्रत का परिशिष्ट-१
४०१. [पुरिम-पच्छिमगाणं तित्यगराणं पंचजामस्स पणवीस भाव- ४०१. प्रथम और अन्तिम तीर्थकरों ने पांच महाव्रतों को पच्चीस गाओ पण्णत्ताओ तं जहर
भावनायें कही हैं । यथापढम महव्ययस्स पंच भावणाओ
प्रथम महाव्रत की पांच भावनायें
[प्राणातिपात-विरमण या अहिंसा महावत की पांच भावना-] १. ईरिसमिई २. मणगुत्ती
(१) ईर्या समिति (२) मनोगुप्ति ३. बरगुत्ती ४. सालोयपापमोह
३. बस (४) आलोकित-पान-भोजन ५. बादाण-भव-मसणिवखेवणासमिई। –सम, २५, सु. १ (५) आदानभांड-मात्रनिक्षेपणासमिति । तस्स इमा पंच मावणाओ पढमस्स वयस्स हाँति-पाणाह- पांच महानतों (संवरों) में से प्रथम महानत की ये-आगे वायवरमण-परिरक्षणयाए।
कही जाने वाली पांच भावनाएँ प्राणातिपातविरमण अर्थात्
अहिंसा महायत की रक्षा के लिए है। पढम्श भावणा
प्रथम भावनापढम ठाण-गमण गुण जोग-गुंजणजुगतर-णिवाइयाए दिट्ठिए खड़े होने, ठहरने और गमन करने में स्व-पर की पीड़ारियवं,
रहिततता गुणयोग को जोड़ने वाली तथा गाड़ी के युग (जुने)
प्रमाण भूमि पर गिरने वाली दृष्टि से (अर्थात् लगभग चार हाथ कीड पयंग-तस-यावर-वयावरेण णित्रं पुष्फ-फल-लय-पवाल- आगे की भूमि पर दृष्टि रखकर) निरन्तर कीट, पतंग, स, कर-पूल-ग-मट्टिय-यीय-हरिय-परिवज्जिएण सम्म । स्थावर जीवों की दया में तत्पर होकर फूल. फल, छाल, प्रवाल,
-पत्ते-कोंपल, मूल, जल, मिट्टी, बीज एवं हरितकाय-दूब आदि को (कुचलने से) बचाते हुए, सम्यक् प्रकार से-यतना के साथ
चलना चाहिए। एवं खलु सम्वपाणा, होलियस्या, पगिनियल्वर, गगर- इस प्रकार चलने वाले साधु को निश्चय ही समस्त अर्थात् हिमव्वा, गहिसियथ्या, पछिपियवा, णमिवियटवा, ण किसी भी प्राणी की हीलना - उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, निन्दा वहेयध्या, ण मयं दुक्खं च किधि सामा पावेज,
नहीं करनी चाहिए, गहरे नहीं करनी चाहिए। उनकी हिंसा नहीं करनी चाहिए। उनका छेदन नहीं करना चाहिए, भेदन नहीं करना चाहिए, उन्हें व्यथित नहीं करना चाहिए। इन पूर्वोक्त
जीवों को लेशमात्र भी भय या दुःख नहीं पहुँचाना चाहिए। एवं इरियासमिइ जोगेण माविमो भवद अंतरप्पा असबल- इस प्रकार (के आचरण) से साधु ई समिति में मन, मसंकिलिट्टणि वणचरित्तभाषणाए अहिंसए संजए सुसाहू। वचन, काय की प्रवृत्ति से भावित होता है। तथा शबलत!
(मलीनता) से रहित संक्लेश से रहित अक्षत (निरतिचार) चारित्र की भावना से युक्त, संयमशील एवं अहिंसक सुसाघु कहलाता है-मोक्ष का साधक होता है।
१ यह पाठ समवायांग का है-अतः एक साथ पांच महावत की पच्चीस भावनाएं कही गई हैं।
यहाँ प्रत्येक महावत की पांच-पांच भावनाएँ यथास्थान दी गई हैं।