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वरणानुयोग
प्रथम महाव्रत की पांच भावनाएं
सूत्र ४०१
विया भावणा
द्वितीय भावना--- बिइयं च मणेण पावएर्ण पावगं अहम्मियं वारुणं णिसंसं दूसरी भावना मनः समिति है। पापमय, अधार्मिक-धर्मबह-बंध-परिकिलेस महल भय-मरग-परिकिलेससंकिलिट्ट, विरोधी, दारुण- भयानक, नृशंस-निर्दयतापूर्ण, वध, बन्ध ग कणव मगेण पावएणं पावर्ग किचि विप्रायवं। और परिक्लेश की बहुलता वाले, भय, मृत्यु एवं सेश से
संक्लिष्ट-मलीन ऐसे पापयुक्त मन से लेशमात्र भी विचार नहीं एवं मणसमिइजोगेण भाविओ भयह अंतरप्पा असमलमसंकि- करना चाहिए । इस प्रकार (के आचरण) से-मन समिति की लिटुणिवणचरिसमावणाए अहिंसए संजए सुत्साहू । प्रवृत्ति से अन्तरात्मा भावित -वामित होती है तथा निर्मल
संक्लेशरहित, अखण्ड (निरतिचार) चारित्र की भावना से युक्त
संयमशील एवं अहिंसक सुसाधु कहलाता हैं। तझ्या भावणा
तृतीय भावना-- तवं च वईए पाबियाए पावगं ण किचि वि मासियछ। तीसरी भावना वचन समिति है। पापमय वाणी से तनिक
भी पापयुक्त-सावध यचन का प्रयोग नहीं करना चाहिए। एवं बह-समितिजोगेण भाविओ भवा अंतरप्पा असबल- इस प्रकार की वाक् समिति (भाषा समिति) के योग से युक्त मसंकि लिट्ठ-णिस्वण-धरित्त-मावणाए अहिंसए संजए सुसाहू । अन्तरात्मा वाला निर्मल, संक्लेश रहित और अखण्ड चारित्र की
भावना वाला अहिंसक साधु सुसाधु होता है-मोक्ष का साधक होता है।
चजत्था भावणा
चवस्थं आहारएसणाए मुरउ गथेसियवं,
चतुर्थ भावना
चौथी भावना निर्दोष आहार लेना है। आहार की एषणा से शुद्ध-एषणा सम्बन्धी समस्त दोषों रो रहित, गधुकरी वृत्ति से—अनेक घरों से भिक्षा की गवेषणा करनी चाहिए
अण्णाए अहिए अपडिए अपुढे अवीणे अकलुणे अविसाई भिक्षा लेने वाला साधु अज्ञात रहे अज्ञात सम्बन्ध बाला रहे, अपरिसंतजोगी जयण-घडग-करण-धरिय-विषय-गुण-जोग- अमृद्ध गृद्धि-आसक्ति से रहित हो, अदुष्ट-द्वेष से रहित हो, संपओगजुसे मिक्खू भिसणाए जुत्ते समुदाणेउण... अर्थात् भिक्षा न देने वाले, अपर्याप्त भिक्षा देने वाले या नीरस
भिक्षा देने वाले दाता पर द्वेष न करे । करुण दयनीय-दयापात्र न बने । अलाभ की स्थिति में विषाद न करे। मन-वचन-काय की सम्यक् प्रवृत्ति में निरन्तर निरत रहे । प्राप्त संयम योगों की रक्षा के लिए यतनाशील एवं अप्राप्त संयमयोगों की प्राप्ति के लिए प्रयत्नवान, विनय का आचरण करने वाला तथा क्षमा आदि गुणों की प्रवृत्ति से युक्त ऐसा भिक्षाचर्या में तत्पर भिक्षुक अनेक
घरों में भ्रमण करके थोड़ी-थोड़ी भिक्षा ग्रहण करे । मिक्खाचरियं उछ घेतग आगओ गुरजगस्स पास गमणा- भिक्षा ग्रहण करके अपने स्थान पर गुरुजन के समक्ष जानेगमगाइयारे परिकमणपशिकते मालोयणवायणं य बाउण आने में लगे हुए अतिचारों दोषों का प्रतिक्रमण करे। गृहीतगुरुजगस्स गुरुसंविटुस्स वा जहोवएसं णिरइयारं च अप्प- आहार-पानी की आलोचना करे। आहार-पानी उन्हें दिखला दे, मत्तो पुणरवि अगेसगाए पयओ पशिक्कमित्ता। फिर गुरुजन के मथवा गुरुजन द्वारा निर्दिष्ट किसी अग्रगण्य
साधु के आदेश के अनुसार सब अतिचारों-दोषों की निवृत्ति के लिए पुनः प्रतिक्रमण (कायोत्सर्ग) करे।