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सूत्र ४२४-४२७
जे वि य लोगम्मि अपरिसेसा मंतजोगा जया व विज्जा य गाय अथाविय सहयाणि य सिक्खाओ प आगमा य सवाई पिलाई मध्ये पाई।
.प. सु. २, अ. २, सु. ५-६
अवसज्यं सचं
४२५. सचं विव संजमस्त उवरोधकारगं किचि न यत्तस्वं हिमा [सावज्जसंपतं मेव विककार अत्यन्याय- कलह कार अणज्यं, अववाय विवायसंपत्तं वेलंचं ओमज्ज बहुलं गिल्बन्नं लोग हनिमुन अप्पो थवा, परेणिया
ण तंसि मेहावी, णं तेसि धण्णो ण तंसि पियधम्मो, ण तंसि कुलीणो ण तंसि वाणयई, ण सी िव तंसि सूरो, तंसि पत्रिका, ण तंसि लट्ठो, ण पंडिओ, ए बहुस्सुओ, ण वि य तसि वस्ती व दावि परोस।
जाइ-कुल-रूब वाहि-रोगेण वावि जं होई वज्जगिज्जं दुहओ उदारमन एवं हिंसयं विगतभ्यं ।
-म. सु. २, अ. २, सु.
४२६. १० - अहं फेरिलगं पुगाइ सच्वं तु मासियध्वं ?
अवक्तव्य सध्य
० तं देहि पहिय गुणेहि कम्मेहिं वज्रविहि सिप्पेहि भागमेहि य गामवखाय- शिवाय - उषसभा द्विसमाससंधिय-हे---किरिया विहाण- घाउ-नर-विमतितिर विस" जह मणिय तह य कम्पुणा होइ दुबालस विहा होइ मासा," aणं वि य होइ सोलसविहं "
सच्चवयण फलं—
४७. इमं
एवं अहंता समिति संजएवं कालमिय तवं
- प. सु. २, अ. २, सु. ६
व
पाए शवयणं भगवया सुकहिये,
अवि-जि-फल-कय-वण-परिरक्स
१ (क)
२ पण्ण. प. ११, सु. ८६६
१०, सु. ७४१
(ख) पण ११ ३ पण्ण. प. ११, सु. ६६
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चारित्राचार
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लोक में जितने भी मन्त्र योग जाप, विद्या, जृम्भक देव, अस्त्रशस्त्र, शिक्षा, कला और आगम हैं ये सब सत्य में प्रतिष्ठित हैं ।
वक्तव्य सत्य
४२६. प्र० -- फिर किस प्रकार का सत्य कहना चाहिए ?
उ०- जो वचन द्रव्य-पर्याय-गुण कर्म नाना प्रकार के शिल्प और आगम से युक्त हों तथा नाम, आख्यात, निपात, उपसर्ग, तद्धित समास, सन्धि, पद हेतु यौनिक उपादि (प्रत्ययविशेष) क्रियासविधानमा स्वर विभक्ति वर्ण से युक्त हो अर्थात् जो वचन
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अवक्तव्य सत्य
सावद्य
४२५. (१) संयम का बाधक हो वैसा सत्य कदापि नहीं बोलना चाहिए। हिंसा और से युक्त, नारि का भेद करने वाला विक्रयारूप, वृथा, कलहकारी अनार्य या अन्याय युक्त, अपवाद और विवाद उत्पन्न करने वाला विडम्बनाजनक, जोश और धृष्टता से युक्त, लज्जाहीन, लोक निन्दनीय, अच्छी तरह न देखा हुआ, अच्छी तरह न सुना हुआ, अच्छी तरह न जाना हुआ, आत्म-प्रशंसा तथा परनिन्दा रूप ऐसा सत्य वचन भी नहीं बोलना चाहिए।
(२) "तुझमें वृद्धि नहीं है, घर का लेनदार नहीं है, तू धर्मप्रिय नहीं है, तू कुलोम नहीं है, तू दानी नहीं है, तू पुरवीर नहीं है, तू रूपवान नहीं है, तू पण्डित नहीं है, तू बहुश्रुत नहीं है, तू तपस्वी नहीं है, तू परलोक की दृढ़ श्रद्धा नहीं रखता है" ऐसे वचन कदापि कहने योग्य नहीं है ।
"
(१) जो वचन जाति कुल रूप पाधि, रोग आदि के कथन द्वारा पर को पीड़ा पहुँचाने वाले हों तथा शिष्टाचार या उपकार का उल्लघन करें वे वजंतीय हैं। ऐसा सत्य भी बोलने योग्य नहीं है।
की दृष्टि से और शब्द शास्त्र की दृष्टि से युक्त हों उनका ही प्रयोग करना चाहिए। दस प्रकार के सत्य त्रैकालिक हैं। यह सत्य जिस प्रकार कहा गया है उसी प्रकार का होता है। बारह प्रकार की भाषा और सोलह प्रकार के वचन होते हैं।
इस प्रकार अर्हन्त भगवान् द्वारा अनुज्ञात एवं समीक्षित वचन यथासमय संयमी जनों को बोलने चाहिए। सत्य वचन का फल
४२७. यह प्रवचन भगवान् ने अशस्थ, पैशुन्य, कठोर, कटुक तथा विवेकहीन वचनों के निषेध के लिए सम्यक् प्रकार से कहा है ।
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