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४२०-४२१
बिय महत्व आहण पट्टण्णा
४२०. अहावरे दोभते ! महार सवं ! अंते । मुसत्या पश्चक्ामि ।। से कोहा वर, सोहर वा भया या हाता वा । से मुसाषाए बिहे पण, तं जहा
२.ओ. २ का
४. भावो
,
२
५.
द्वितीय महावत के गायक की प्रतिज्ञा
द्वितीय महाव्रत
द्वितीय महाव्रत स्वरूप एवं आराधना
१.
ओ.
२. खेलओ लोगे वा अलोगे वा
३. कालओ दिया वा राओ वा ८.सो वा भए वा हासे बा नेय सयं मुखं वज्जा, नेयन्नेहि मुलं वायरवेज, मुखं बयते विन्नेन समपुजामा जावजीबाए लिहिं तिबिग बाया कानानि करतं अभ्यं न समगुजानामि ।
तरसते ! ममि निदानि गरि हामि अध्या पोसि रामि ।
दोच्चे भंते | महत्वए जबट्ठियोभि सभ्याओ मुसावाबाओ वेरमणं । - दस. अ. ४, सु. १२ मुसावाय विरमण महत्ययस्स पंच भाषणाओ४२१. वो माथि सत्यं मुसामा
दो से फोहा वर लोभा या भया वा हासा वर व सयं मुसं भासेज्जा, वर्णणं मुखं भासावेज्जर, अवि मुर्स असंतं ण समजाज्ञा जावज्जीवरए तिविहं तिविषं
मणसा वयसा कायसा ।
,
(१) द्रव्य से, (२) क्षेत्र से, (३) काल से, (४) भाव से (१) द्रव्य से सर्व द्रव्य के सम्बन्ध में,
या हास्य से
(२) क्षेत्र से लोक में या अलोक में, (३) काल से दिन में या रात में, (४) भाव से क्रोध या लोभ से भय से मैं स्वयं असत्य नहीं बोलूंगा. दूसरों से अस्प नहीं मा गा औरओं का अनुभव भी नहीं करूँगा, पियाजीवन के लिए तीन करण तीन पग से मन से धवन से, काया से न करूँगा, न कराऊँगा और करने वाले का अनु मोदन भी नहीं करूँगा ।
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भन्ते ! मैं अतीत के मृषावाद से निवृत्त होता है, उसकी निन्दा करता है, यहाँ करता है और (या) आत्मा का व्र करता हूँ ।
चारित्राचार
द्वितीय महाव्रत के आराधक की प्रतिज्ञा
४२० भन्ते ! इसके पश्चात् दूसरे महाव्रत में मृषावाद की विरति होती है । भन्ते ! में सर्व मुबाबाद का प्रत्याख्यान करता हूँ । वह क्रोध से हो या लोभ से, भय से हो या हास्य से । मृषावाद चार प्रकार के हैं
१ सावान लोग सब्यसागरहियो अविस्वास व भूमा
मन से असत्य चिन्तन न करना, ३ वचन से असत्य न बोलना,
मुसावाविव भासिय हियं सभ्यं
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भन्ते ! मैं दूसरे महाव्रत में उपस्थित हुआ है। इसमें सर्व मृषावाद की विरति होती है ।
नृपावाद विरमण महाव्रत की पांच भावना -
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४२१. इसके पश्चात् भगवन में द्वितीय महाव्रत स्वीकार करता हूँ। आज मैं सब प्रकार से मृषावाद (असत्य) और सदोष-वचन का प्रत्याख्यान (त्याग) करता हूँ। ( इस सत्य महाव्रत के पालन के लिए) साधु क्रोध से लोभ से, भय से या हास्य से न तो स्वयं मृश (असत्य) बोले, न ही अन्य व्यक्ति से असत्य भाषण बुलवाए और जो व्यक्ति असत्य बोलता है, उसका अनुमोदन भी न करे । इस प्रकार यावज्जीवन तीन करणों से तथा मन-वचन-काया, इन तीनों योगों से मृषावाद का सर्वथा त्याग करे |
सहामो विवन्जए ।
४ काया से असत्य बाचरण न करना ।
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दस. अ. ६, गा. १२
- उत्त अ. १६, गा. २७