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चरणानुयोग
सदोष चिकित्सा निषेध
सूत्र ३५७.३५८
जे भिक्ख बत्थं णिकोरेप गिमकोरायेद णिवकोरिय आपट्ट देजमा पहिगाहेई पडिग्माहतं वा साइज्जह ।
जो भिक्षु वस्त्र को कोरता है, कोरवाता है, कोरे हुए को लाकर दे उसे लेता है, लेने के लिए कहता है, लेने वाले का अनुमोदन करता है।
उसे चातुर्मासिक उद्घातिक परिहारस्थान (प्रायश्चित) आता है।
सं सेवमाणे आषज्जइ चाउम्मासियं परिहारदाण उग्धाइयं ।
-नि, उ, १८, सु. ६४-७०
सदोष-चिकित्सा का निषेध-४
सदोस तेगिच्छा निसेहो
सदोष-चिकित्सा निषेध२५८. से तं जाणह जमहं देमि
३५८. तुम उसे जानो, जो मैं कहता हूँसेइम पंडिए पत्रयमाणे से हंता छेत्ता मेता खंपिता विल अपने को चिकित्सा पण्डित बताते हुए कुछ वैद्य, चिकित्सा पिसा उहवात्ता "अकई करिस्सामि" ति मण्णमा, जस्स में प्रवृत्त होते हैं। वह अनेक जीवों का हनन, भेदन, लुम्पन, विगं करो।
विलुम्पन और प्राण-वध करता है। "जो पहले किसी ने नहीं किया, ऐसा मैं करूंगा", यह मानता हुभा (वह जीव वध करता है)। वह जिसकी चिकित्सा करता है (बह भी जीव बध में सह
भागी होता है।) अलं नालास संघेणं, जे वा से करेति बाले।
(इस प्रकार की हिंसा-प्रधान चिकित्सा करने वाले) अज्ञानी की संगति से क्या लाभ है जो ऐसी चिकित्सा करवाता है, वह
भी बाल अज्ञानी है। ण एवं मणगारस जायति त्ति बेमि ।
अनगार ऐसी चिकित्सा नहीं करवाता-ऐसा मैं कहता हूँ। -आ. सु.१, अ.२, उ. ५, सु.६४ से सं संबुसमाणे आयाणीयं समुट्ठाए तम्हा पावं कम्म व वह (साधक) उस पाप-कर्म के विषय को सम्या प्रकार से कुज्या ण कारखे।
जानकर संयम साधना में समुद्यत हो जाता है। इसलिए वह स्वयं पाप-कर्म न करें, दूसरों से न करवाये (अनुमोदन भी
न करें।) सिपा तत्य एकयर विष्परामुसति छसु अण्णयरम्मि कम्पति । कदाचित् (वह प्रमाद या अज्ञानवश) किसी एक जीवकाय सुट्ठी लामप्यमाणे सएग दुरखेण मूर्व विपरियासमुवेति । का समारम्भ करता है, तो वह छहों जीव-कायों में से (किसी का सएण विष्पमाएण पुको वयं पकुल्वति सिमे पाणा भी या सभी का) समा (म्भ कर सकता है। वह सुख का अभिलाबी
बार-बार सुख की अभिलाषा करता है, (किन्तु) स्व-कृत कर्मों के कारण, (व्यथित होकर) मूढ़ बन जाता है और विषयादि सुख के बदले दुःख को प्राप्त करता है। वह (मूड) अपने अति प्रमाद के कारण ही अनेक योनियों में प्रमण करता है, जहाँ पर कि प्राणी
अत्यन्त दु:ख भोगते हैं। पहिलेहाए जो णिकरणाए । एस परिण्णा कम्मोवसंती। यह जानकर पाप-कर्म के कारण प्राणी संसार में दु.खी -आ. सु. १, म.२, द. ६, सु. ६५-६७ होता है । उसका (पाप-कर्म का) संकल्प त्याग देवे । यही परिज्ञा
विवेक कहा जाता है। इसी से (पाप त्याग से) कर्मों की शांति (क्षय) होती है।