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धरणानुयोग
प्रथम महावत और उसको पाँच भावना
सूत्र ३२०
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सले,
३. महावरा तच्चा भावणा-वर परिजागति से णिग्गये,
(३) इसके अनन्तर तृतीय भावना यह है-जो साधक वचन का स्वरूप भलीभांति जानकर सदोष वचनों का परित्याग
- करता है, वह निर्गन्य है। आ य वई पाश्यिा सावजा सकिरिया-जाव-मूतोवघातिया जो वचन पापकारी सावध क्रियाओं से युक्त यावत् जीवों तहप्पगारं यई गो उच्चारेज्जा ।
का उपघातक है। साधु इस प्रकार के वचन का उच्चारण न
जेवई परिजात से मिगंथे जाय वह अवाचिया ति जो वाणी के दोषों को भलीभांति जानकर सदोष वाणी का ताचा मावणा।
परित्याग करता है वही निर्गन्ध है । उसको बाणी पापदोष रहित
हो, यह तृतीय भावना है। ४. अहावरा चउत्था भावणा-आयाणभंडमत्तणिक्खेवणा- (४) तदनन्तर चौथो भावना यह है-जो आदानभाण्डमात्र समिसे सेणिगंथे, जो अगावाणमंडमत्तणिक्लेवणाऽसमिते। निक्षेपण समिति से युक्त है, वह नियंग्य है । जो आदानभाण्डमात्र
निक्षेपण समिति से रहित है वह निर्मन्य नहीं है। केवली या-"बावाणमंडनिक्खेवणाअसमिते से णिग्ग केबली भगवान् कहते है--जो निर्ग्रन्थ- आदानभाण्डमात्र पाणाई भूताई जौबाई सप्ताह अभिहणेज्ज बा-जान-उवेज निक्षोपण समिति से रहित है, वह प्राणियों, भूतों, जीवों और था। तम्हा आयाणमंणिक्षेवणासमिते से णिग्गंथे, जो सरवों का अभिघात करता है,-यापन–पीड़ा पहुँचाता है। अणावाणमणिश्खेवणाऽसमिसे ति घनत्या भाषणा। इसलिए जो आदान-भागमानिशेषण समिति से युक्त है वही
निग्रन्थ है, जो आदानभाण्ड (मात्र) निक्षेपण समिति से रहित
है, वह निग्रन्थ नहीं है । यह चतुर्थ भावना है। ५. महावरा पंचमा भावणा-आलोइयपाण-भोयगभोई से (५) इसके पश्चात् पांचवीं भावना यह है---जो साधक णिग्गथे जो अणासोइयवाण-पोषणभोई।
आलोकित पानभोज नभोजी होता है, वह निर्ग्रन्थ होता है, अना
लोकित पान भोजन-भोजी नहीं । केवली या-'अणालोइयाण - भोयणभोई से मिगधे केवली भगवान् कहते हैं -जो बिना देखे-भाले ही आहारपागाणि वा, भूताणि वा, कोबाणि या, सत्ताणि वा अमि- पानी सेवन करता है। यह निर्ग्रन्य प्राणों, भूतों, जीवों और सत्वों हणेजवा-जाब-उहवेज्ज था। तम्हा आलोइयपाण-भोयण- का हनन करता है,--पावत्-उन्हें पीड़ा पहुंचाता है। अत: भोई से णिग्गथे जो अभालोहयपाग-भोयमभोई ति पंचरा जो देखभाल कर आहार-पानी का सेवन करता है, वही निर्ग्रन्थ भावणा।
है। बिना देले भाले आहार-पानी करने वाला नहीं। यह
पंचम भावना है। एताद ताव महस्मय सम्म काएणं कासिते पालिते तीरिए इस प्रकार पाँच भावनाओं से विशिष्ट तथा साधक द्वारा किट्टिते अवढिसे आणाए आराहिते यावि भवति । स्वीकृत प्राणातिपात विरमणरूप प्रथम महावत का सम्यक् प्रकार
काया से स्पर्श करने पर उसका पालन करने पर, गृहीत महाअत को भलीभांति पार लगाने पर, उसका कीर्तन करने पर, उसमें अवस्थित रहने पर, भगवाजा के अनुरूप आराधन हो
जाता है। परमे मते ! महम्वर पाणाइबातामो वेरमयं ।
हे भगवन् ! यह प्राणातिपातविरमणरूप प्रथम महावत है। -आ. सु. २, अ.१५, सु. ७७७-७७६
१ (क) समवायांग सूत्र में अहिंसा महायत की पांच भावनाएं हैं-१. श्यास मिति, २. मनोगुप्ति, ३. वचनगुप्ति, ४. आलोक भाजन भोजन, ५. आदानभाण्डमात्रनिक्षेपण समिति ।
--सम, सम. २५, मु. १ (ख) प्रश्नण्याकरण में अहिंसा महाबल की पांच भावनाएँ इस प्रकार हैं-१. ईर्यासमिति, २. अपापगमन, .. अपापवचन, ४. एषणा समिति, ५. आदान निक्षेपण समिति ।
--पण्ह- सु. २, अ. १, सु. ७-११ विशेष के लिए देखें इसी विभाग का परिशिष्ट ।