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परमानुयोग
सचित्त पृथ्वी पर निषचा (बैठने) का निषेध
पुष ३२५-३०
अन्नं आलिहावेज्जा न विलिहावेजा न घडावेजा न दुसरे से न आलेखन कराए, न विलेखन कराए, न घटन भिवावेज्जा,
कराए और न भेदन कराए । अग्नं आलिहत वा विलिहतं वा घट्टन्तं वा मिवंत वान समगु- आलेखन, विलेखन, चट्टन या भेदन करने वाले का अनुजाणेग्ला डावग्जीवाए तिविहं तिबिहेण मणेणं वायाए मोदन भी न करे, यावजीवन के लिए तीन करण तीन योग से कारणं न करेमि न कारवेमि करतं पि मान न समषु- मन से, वन से, काया से, न करूगा न कराऊँगा और न करने जाणामि ।'
वाले का अनुमोदन भी करू गा। तस्स मंते | परिपकमामि निवामि गरिहामि अप्याग बोस- भंते ! मैं अतीत के पृथ्वी-समारम्भ से निवृत्त होता है, रामि।
उसको निन्दा करता हूँ, गहीं करता हूँ और आत्मा का व्युत्सर्ग
-दस. अ. ४, सु. १८ करता हूँ। सचित्त पुढवीए णिसिज्जा निसेहो
सचित्त पृथ्वी पर निषद्या (बैठने) का निषेध-- अधिस पुढवीए णिसेज्जा विहाणो
अचित्त पृथ्वी पर बैठने का विधान३२९. सुधपुढवीए न निसिए, ससरमम्मि पासणे। २२६. मुनि शुद्ध पृथ्वी और सचित-रज से संसृष्ट आसन पर न पमजिस निसीएज्मा, माता जस्स प्रोग्गह।। बैठे । अचित्त पृथ्वी पर प्रमार्जन कर और वह जिसकी हो उसकी
-इस. अ.८, मा.५ अनुमति लेकर बैठे। पहवीकायाणं वेयणा विणायतेसि आरम्भणिसेहो को- पृथ्वीकायिक जीवों की वेदना जानकर उनके आरम्भ का
निषेध किया है३३०. अट्टलोए परिषुण्णे दुरसंबोधे अधिजाणए।
३३०, जो मनुष्य आर्त, (विषय-वासना-कषाय आदि से पीड़ित) है, वह शान-दर्शन से परिजीर्ण-हीन रहता है। ऐसे व्यक्ति को
समझाना कठिन होता है, क्योंकि वह अज्ञानी जो है। मस्सिं लोए पावहिए ताय तस्थ पुढो पास आतुरा परि- अज्ञानी मनुष्य इस लोक में व्यथा-पीड़ा का अनुभव करता ताति।
है। काम-भोग व सुख के लिए आतुर-लालायित बने प्राणी स्थानस्थान पर पृथ्वीकाय आदि प्राणियों को परिताप (कष्ट) देते रहते
हैं । यह तू देख ! समक्ष! संति पाणा पुढो सिता ।
पृथ्वीका यिक प्राणी पृथक-पृथक् शरीर में आश्रित रहते हैं
अर्थात् वे प्रत्येकशरीरी होते हैं। मासमामा पुटो पास।
तू देख ! आत्म-साधक, लज्जामान है-हिमा से स्वयं का संकोच करता हुआ अर्थात् हिंसा करने में लज्जा का अनुभव
करता हुआ संयममय जीवन जीता है। अणारा मोति एगे पयषमाग।। जमिपं विस्वस्वेहि कुछ वेषधारी साधु 'हम गृहत्यागी है ऐसा कथन करते हुए सत्येहि प्रविफम्मसमारंमेणं पुषिसत्यं समारंभमाणो भी वे नाना प्रकार के स्त्रों से पृथ्वी सम्बन्धी हिंसा-क्रिया में भगवे पाणे विहिंसहि।
लगकर पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करते हैं । तथा पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा के साथ तदाश्रित अन्य अनेक प्रकार के जीवों
की भी हिंसा करते हैं। ताप खानु अगवता परिया पवेविता
इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा (विवेक) का उपदेश किया है।
1 पुदि भिति सिल लेलु नेव भिदे न संलिहे । तिबिहेण करणजोएण संभए सुसमाहिए।
-दस. अ.८, गा. ४