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परगानुयोग
विनय प्रतिपन्न पुरुष
सूत्र ११२-११३
३.कन्जहे,
४. कयपजिकिरिया,
१. अत्तयवेसणया,
६. देसकालण्णया,
७. सम्वटु सु अप्पजिलोमया।
-ओव, सु. ३०
से तं लोगोषयारविणए,
से तं विषए । विणयपडिवण्णा पुरिसा११३. चसारि पुरिसमाया पण्णत्ता, तं जहा,
१. अबभूट्ठति णाममेगे जो अम्भुट्टावेति,
२. आमुहायेति गाममेगे णो अम्मुट्ठति,
३. कार्य हेतु-विद्या आदि प्राप्त करने हेतु, अथवा जिनसे विद्या प्राप्त की, उनकी सेवा-परिचर्या करना।
४. कृत-प्रतिक्रिया-अपने प्रति किये गये उपकारों के लिए कृतशता अनुभव करते हुए सेवा-परिचर्या करना।
५. आतं-गवेषणता-रुग्णता, वृद्धावस्था से पीड़ित संयत जनों, गुरुजनों, की सार-सम्हाल तथा औषधि, पथ्य आदि द्वारा सेवा-परिचर्या करना ।
६. देशकालज्ञता--देश तथा समय को ध्यान में रखते हुए ऐसा आचरण करना, जिससे अपना मूल लक्ष्य न्याहत न हो।
७. सर्वार्थाप्रतिलोमता-सभी अनुष्ठ्य विषयों, कार्यों में विपरीत आचरण न करना, अनुकूल आवरण करना ।
यह लोकोपचार-विनय है।
इस प्रकार यह विनय का विवेचन है। विनय प्रतिपन्न पुरुष११३. पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं । जैसे
१. कोई पुरुष (गुरुजनादि को देखकर) अभ्युत्थान करता है, किन्तु (दूसरों से) अभ्युत्थान करवाता नहीं ।
२. कोई पुरुष (दूसरों से) अभ्युत्थान करवाता है, किन्तु (स्वयं) अभ्युत्थान नहीं करता।
३. कोई पुरुष स्वयं भी अभ्युत्थान करता है और दूसरों से भी अभ्युत्थान करवाता है।
४. कोई पुरुष न स्वयं अभ्युत्थान करता है और न दूसरों से भी अभ्युत्थान करवाता है।
पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं । जैसे
१. कोई पुरुष (गुरुजनादि की) बन्दना करता है, किन्तु (दूसरों से) वन्दना करवाता नहीं ।
२. कोई पुरुष (दूसरों से) वन्दना करवाता है, किन्तु स्वयं वन्दना नहीं करता।
३. कोई पुरुष स्वयं भी वन्दना करता है और दूसरों से भी वन्दना करवाता है।
४. कोई पुरुष न स्वयं वन्दना करता है और न दूसरों से वन्दना करवाता है।
पुनः पुरुष चार प्रकार के कहे गये हैं । जैसे
१. कोई पुरुष (गुरुजनादि का) सत्कार करता है, किन्तु (दूसरों से) सत्कार करवाता नहीं 1
३. एगे आमुट्ठति वि अग्मुटावेति वि,
'४. एगे णो अमुट्ठति णो अग्युटावेति ।
चत्तारि पुरिसप्ताया पण्णता, तंबहा१. वाएइ गाममेगे को बायावेह,
२. वायावह गाममेगे गो वाएइ,
३. एपे वाएइ वि यायावह वि,
४. एगे णो बाएइ पो पायावेह ।
पत्तारि पुरिसजाया पण्णता, तं जना१. परिच्छति गाममेगे जो परिच्छायेति,
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ठाणं. अ.७, सु. ५८५