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उत्तर विधि
बहुमान मानांचार
[१.७
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नो छापते नो बिय लसएज्जा,
___माणं प सेवेश्म पगासणं । प पावि पण्णे परिहास कुग्जा,
ण या सिसाबान वियागरेज्जा ।
भूताभिसंकाए गुछ माणो,
ण णिस्नेह मतपवेण गोतं । पकिषि मिच्छ मणुओ पयासु,
असाहधम्माणि ण संबवेज्जा ॥
साधु प्रश्नों का उत्तर देते समय शास्त्र के यथार्थ को न छिपाए (अथवा वह अपने गुरु या आचार्य का नाम या अपना गुणोत्कर्ष बताने के अभिप्राय से दूसरों के गुण न छिपाए), अपसिद्धान्त का आश्रय लेकर शास्त्रपाठ की तोड़-मरोड़ कर व्याख्या न करे, (अथवा दूसरों के गुणों को दूषित न करे), तथा वह मैं ही सर्वशास्त्रों का ज्ञाता और महान् व्याख्याता हूँ, इस प्रकार मान-गवं न करे, न ही स्वयं को बहुथुत एवं महातपस्वी रूप से प्रकाशित करे अथवा अपने तप, ज्ञान गुण आदि को प्रसिद्ध न करे । प्राश (श्रुतघर) साधक थोता (मन्दबुद्धि वाला व्यक्ति) का परिहास भी न करे, और न ही (तुम पुत्रवान्, धनवान् या दीर्घायु हो इस प्रकार का) आशीर्वादसूचक वाक्य कहे।
प्राणियों के विनाश की आशंका से तथा पाप से घृणा करता हुआ साधु किसी को आशीर्वाद न दे, तथा मन्त्र आदि के पदों का प्रयोग करके गोत्र (बचनगुप्ति या बाक्संयम अथवा मौन) को नि:सार न करे, (अथवा साधु राजा आदि के साथ गुप्त मन्त्रणा करके या राजादि को कोई मन्त्र देकर गोत्र---प्राणियों के जीवन का नाश न कराए) साधु पुरुष धर्मकथा या शास्त्र व्याख्यान करता हुआ जनता (प्रजा) से द्रव्य या किसी पदार्थ के साभ, सरकार या भेंट, पूजा आदि की अभिलाषा न करे, असाघुओं के धर्म (वस्तुदान, तर्पण आदि) का उपदेश न करे (अथवा असाधुओं के धर्म का उपदेश करने वाले को सम्यक् न कहे, अथवा धर्मकथा करता हुआ साधु असाधु-धर्मो-अपनी प्रचसा, कीर्ति, प्रसिद्धि आदि की इच्छा न करे)।
जिससे हसी उत्पन्न हो, ऐसा कोई शब्द या मन-वचन-काया का व्यापार न करे, अथवा साधु किसी के दीयों को प्रकट करने दाली, पापबन्ध के स्वभाववाली बातें हंसी में न कहे। बीत रामता में ओतप्रोत (राम'ष रहित) माधु दूसरों के चित्त को दुखित करने वाले कठोर सत्य को भी पापकर्मबन्धकारक जानकर न कहे । साधु किसी विशिष्ट लब्धि, सिद्धि या उपलब्धि अथवा पूजाप्रतिष्ठा को पाकर मद न करे, न ही अपनी प्रशंसा करे अथवा दूसरे को भलीभांति जाने-परखे बिना उसकी अति प्रशंसा न करे । साधु व्याख्यान या धर्मकथा के अवसर पर लाभादि निरपेक्ष (निर्लोभ) एवं सदा कषायरहित होकर रहे।
सूत्र और अर्थ के सम्बन्ध में शंकारहित होने पर भी, "मैं ही इसका अर्थ जानता हूँ. दूसरा नहीं।" इस प्रकार का गवं न करे, अथवा अशंकित होने पर भी शास्त्र के गूढ शब्दों को व्याख्या करते समय शंका (अन्य मर्थ की सम्भावना) के साथ कहे, अथवा स्पष्ट (शंका रहित) अर्थ को भी इस प्रकार न कहे जिससे श्रोता को शंका उत्पन्न हो तथा पदार्थों की व्याख्या विभज्यवाद से सापेक्ष दृष्टि से अनेकांत रूप से करे ।
हास पि णो संधये पावधम्म,
भोए तहियं फरसं बियाणे । मोतुन्छए नोव विकसिरना,
अणाहले या अकसाह मिक्बू ।
संकेज याऽसंकितमा भिषण,
विभज्जवावं च वियागरेग्जा।