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चरणानुयोग
द्वितीय पंच महाभूतवादी की श्रद्धा का निरसन
सूत्र २४७
से एबमायाणह मयंतारो ! जहा मे एस धम्मे सुझमखाए इसके पश्चात् वे कहते हैं- "हे भयत्राताओ ! प्रजा के भय सुपण्णत्ते भवति।
का अन्त करने वालो ! मैं जो भी आपको उत्तम धर्म का उपदेश दे रहा हूँ, वही पूर्व पुरुषों द्वारा सम्यक् प्रकार से कथित और
मुपजप्त (सत्य) है।" इह खलु पंच महम्भूता जेहिं नो कज्जति किरिया ति का इस जगत में पंच महाभूत ही सब कुछ हैं। जिनसे हमारी अकिरिया ति वा, मुकडे ति वा दुकडे ति वाकल्लाणे ति वा क्रिया या अक्रिया, सुकृत अत्रवा दुष्कृत, कल्याण मा पाप, अच्छा पायए सि वा साहु ति वा असाहु ति वा, सिडी ति या प्रसिद्धी या बुरा, सिद्धि या असिद्धि, नरकगति या नरक के अतिरिक्त अन्य ति वा णिरए ति वा अपिए ति वा अवि यंतसो तणमात- गति; अधिक कहां तक कहें, तिनके के हिलने जैसी क्रिया भी भवि।
(इन्हीं पंचमहाभूतों) से होती है। तन पटेसेणं पुढोभूतसमयातं जाणेज्जा, तं जहा
उस भृत-समवाय सिमट) को पृथक-पृथक नाम से जानना
चाहिए । जैसे किपुढयो एगे महामते, आज बोरचे महाभूते, तेऊ तच्चे महम्मूते, पृथ्वी एक महाभूत है, जल दुसरा महाभूत है, तेज (अग्नि) बाउ चजत्थे महरूमूते, आगासे पंचमे महाभूते ।
तीसरा महाभूत है, वायु चौथा महाभूत है और आकाश पांचा
महाभूत है। इच्चेते पंच महम्भूता अणिम्मिता अणिम्मेया अकडा ये पांच महाभूत किसी कर्ता के द्वारा निर्मित (बनाये हुए) गो कित्तिमा णो कडगा अपादिया अणिधणा अवंशा अपुरोहिता नहीं हैं, न ही ये किसी कर्ता द्वारा बनवाए हुए (निर्मापित) हैं, सतंता सामता।
ये किये हुए (कृत) नहीं है, न ही ये कृत्रिम (बनावटी) हैं, और न ये अपनी उत्पत्ति के लिए किसी की अपेक्षा रखते हैं । ये पाँचों महाभूत आदि एवं अन्त रहित हैं तथा अवन्ध-अवश्य कार्य करने वाले हैं। इन्हें कार्य में प्रवृत्त करने वाला कोई दूसरा पदार्थ
नहीं है, ये स्वतन्त्र एवं शाश्वत (नित्य) हैं। आयछट्ठा पुण एगे, एवमाहु
___कोई (सांख्यवादी) पंचमहाभूत और छये आत्मा को मानते
हैं । वे इस प्रकार कहते हैं विसतो गस्थि विषासो, असतो गस्थि संभयो ।
सत् का विनाश नहीं होता और असत् की उत्पत्ति नहीं एताव ताव जीवकाए, एताव ताव अत्यिकाए, एताय ताव होती। (चे पंचमहाभूनवादी कहते हैं- "इतना ही (यही) सक्वलोए, एतं मुहं लोगस्त कारणपाए, अवि यंतसो तणमा जीव काय है, इतना ही (पंचभूतों का अस्तित्वमात्र ही) अस्तिकाय समवि ।
है, इतना ही (पंचमहाभूतरूप ही) समग्र जीव लोक है। ये पंचमहाभूत ही लोक के प्रमुख कारण (समस्त कार्यों में व्याप्त) है, यहाँ तक कि तृण का कम्पन भी इन पंचमहाभूतों के कारण
होता है।" से किणं किणावेमाणे, हणं घातमाणे, पयं पयावेमाणे, अवि (इस दृष्टि से आत्मा असत् या अकिंचिस्कर होने से) "स्वयं अंतसो पुरिसमवि विकिषिता घायइत्ता, एत्म वि जागाहि- खरीदता हुआ, दुसरे से खरीद कराता हुआ, एवं प्राणियों का परिय एत्थ बोसो।"
स्वयं घात करता हुआ तथा दूसरे से घात कराता हुआ, स्वयं -सूय. सु. २, अ.१, सु. ६५४-६५७ पकाता हुआ और दूसरों से पकवाता हुआ (उपलक्षण से इन सब
असद् अनुष्ठानों का अनुमोदर करता हुआ, (यहाँ तक कि किसी पुरुष को (दास आदि के रूप में) खरीदकर घात करने वाला पुरुष भी दोष का भागी नहीं होता क्योंकि इन सब (सावद्य) कायों में कोई दोष नहीं है, यह समझ सो।"
स्वयं
१ संति पंच महम्भूया इहमेगेसिमाहिया । पुवी आऊ तेउवाउ आगास पंचमा ।
एते पंच महन्भूया तेब्भो एगो त्ति आहिया, अह ऐसि विणासे उविणासो होइ दोहिणी
-सूय. सु. १, अ. १, उ. १, गा. ७-८