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घरणानुयोग
अभियावाबी का मिथ्यावण्ड प्रयोग
सूत्र २७४
जा वि पसा अग्मितरिया परिसा रवति, सं अहा- उस मिथ्यादुष्टि की जो आभ्यन्सर परिषद् होती है, जैसेमायावा, पिया या, भाया इवा, भगिणी इवा, माता, पिता, प्राता, भगिनी, भार्या (पली) पुत्री, स्नुषा मना इ बा, घ्या हवा, मुल्हा हवा तेसि पि य णं (पुत्रवधू) आदि. उनके द्वारा किसी छोटे से अपराध के होने पर अग्णयरंसि अहा सहयसि अवराहसि सयमेव गश्यं स्वयं ही भारी दण्ड देता है। निवसति, तं जहासीयोग-वियसि कार्य मोलिता भवा;
जैसे-शीतकाल में अत्यन्त शीतल जल से भरे तालाब
आदि में उसका शरीर डुबाता है । उसिणोषग-वियरेण कार्य ओसिविता पवह
उष्णकाल में अत्यन्त उष्णजल उसके शरीर पर सिंचन
करता है, अगणिकाएण कायं उडहिता मदद
उनके शरीर को आग से जलाता है । जोशेण वा, वेतण था, नेसण था, कसेण वा, छिवासोए जोत (बैलों के गले में बाँधने के उपकरण) से, बेंत आदि से, वा, लयाए वा, पासाई उदालिसा भवइ,
नेत्र (दही मथने की रस्सी) से, कशा (हण्टर चाबुक) से, छिवाड़ी (चिकनी चाबुक) से, या लता (गुर-बेल) से मार मारकर दोनों
पाश्वभागों का चमड़ा उधेड़ देता है। पडेण था, अट्ठीण पा, मुट्ठीण घा, लेलुएग था, कवालेग अथवा डण्डे से, हड्डी से, मुट्ठी से, पत्थर के ढेले से और पा, कायं आउट्टिसा भवइ ।
कपाल (खप्पर) से उसके शरीर को कूटता-पीटता है। तहप्पगारे पुरिस-जाए संबसमाणे बुम्मणा भवति । इस प्रकार के पुरुषवर्ग के साथ रहने वाले मनुष्य दुर्मन तह पगारे पुरिस-जाए चिप्पयसमाणे सुमणा भवंति। (दुःखी) रहते हैं और इस प्रकार के पुरुषवर्ग से दूर रहने पर
मनुष्य प्रसन्न रहते हैं। सहस्पगारे पुरिस-जाए, पंडमासो, बंडगुरुए, रंडपुरपणरे, इस प्रकार का पुरुषवर्ग सदा डण्डं को पार्श्वभाग में रखता
है और किसी के अल्प अपराध के होने पर भी अधिक से अधिक दण्ड देने का विचार रखता है, तथा दण्ड देने को सदा उद्यत
रहता है और डण्डे को ही आगे कर बात करता है। अहिए अस्स सोयसि, अहिए परति लोयंसि । - ऐसा मनुष्य इस लोक में भी अपना अहित-कारक है और
परलोक में भी अपना अकल्याण करने वाला है। ते दुक्खेति, सोयंति, एवं मुरति, तिप्पंति, पिति उक्त प्रकार के मिध्यादृष्टि अक्रियावादी नास्तिक लोग परितप्पति,
दुसरों को दुःखित करते हैं, शोक-संतप्त करते हैं, दुःख पहुँचाकर झुरित करते हैं, सताते हैं, पीड़ा पहुँचाते हैं, पीटते हैं और अनेक
प्रकार से परिताप पहुँचाते हैं। ते दुपक्षण-सोयण-मुरण तिप्पण-पिट्टग-परितापण-वह- वह दूसरों को दुःख देने से, शोक उत्पन्न करने से, पुराने बंध-परिकिलेसाभो अप्पडिविरए।
से, रुलाने से, पीटने से, परितापन से, वध से, बन्ध से माना -दस. द. ६, सु. ६-११ प्रकार के दुःख-सन्ताप पहुँवाता हुआ उनसे अप्रति विरत रहता
है, अर्थात् सदा ही दूसरों को दुःख पहुँचाने में संलग्न रहता है। (घ) एषामेव से इस्पि-काम भोगेहि मुछिए, गिडे, गढिए, (घ) इसी प्रकार वह स्त्री सम्बन्धी काम-भोगों में मूच्छित, अनोवणे,
गृद्ध, आसक्त और पंचेन्द्रियों के विषयों में निमग्न रहता है। -जाव-वासाइं पल-पंचमाई, छ उसमाणि वा अप्पतरो –यावत् - वह चार-पाँच वर्ष, या "ह-सात वर्ष, या आठवा मुज्जतरो वा कालं मुंजिता कामभोगाई, पसेवित्ता दस वर्ष या इससे अल्प या अधिक काल तक काम-भोगों को वेरायतणाई, संचिपिता बहुमं पाया कामाई, भोगकर वर-भाव के सभी स्थानों का सेवन कर और बहुत
पाप-कर्मों का संचय कर,