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परमानुयोग
पुण्डरीक समाधी इष्टात राष्ान्तिक को योजना
दर्शनाचार : परिशिष्ट (१) पुष्परीक सम्बन्धी दृष्टान्त बान्तिक को योजना
प्रस्तुत प्रकरण के दो सूत्रों (सूत्र २७७-२७८) में से प्रथम सूत्र में श्रमण भगवान महावीर ने श्रमण-श्रमणियों की जिज्ञासा देखकर उनको दृष्टान्तों का अर्थघटन करके बताने का आश्वासन दिया है, द्वितीय सूत्र में महावीर प्रभु ने अपनी केवलज्ञानरूपी प्रज्ञा द्वारा निश्चित करके पुष्करिणी आदि दृष्टान्तों का विविध पदाधों से उपमा देकर इस प्रकार अर्थघटन किया है
(१) पुष्करिणी चौदह रज्जू-परिमित विशाल लोक है। जैसे पुष्करिणी में अगणित कमल उत्पन्न और विनष्ट होते रहते हैं, वैसे ही लोक में अगणित प्रकार जीव स्त्र सक्रमानुसार उत्पा-मिनष्ट होते रहते हैं। पुष्करिणी अनेक कमलों का आधार होती है, वैसे ही मनुष्यलोक भी अनेक मानवों का आधार है ।
(२) पुष्करिणी का जल कर्म है। जैसे पुष्करिणी में जल के कारण कमलों को उत्पत्ति होती है, वैसे ही आठ प्रकार के स्वकृत कमाँ के कारण मनुष्यों की उत्पत्ति होती है।
(३) काम-भोग पुष्करिणी का कीचड़ है। जैसे—क्रीचड़ में फंसा हुआ मानव अपना उद्धार करने में असमर्थ हो जाता है, बैसे ही काम-भोगों में फंसा मानव भी अपना उद्धार नहीं कर सकता । ये दोनों ही समान रूप से बन्धन के कारण हैं। एक बाय बन्धन है, दूसरा आन्तरिक बन्धन ।
(४) आयंजन और जनपद बहुसंख्यक श्वेतकमल हैं। पुष्करिणी में नाना प्रकार के कमल होते हैं, वैसे ही मनुष्यलोक में नाना प्रकार के मानब रहते हैं। अथवा पुष्करिणी कमलों से सुशोभित होती है, वैसे ही मनुष्यों और उनके देशों से मानव लोक सुशोभित होता है।
(५) जैसे पुष्करिणी के समस्त कमलों में प्रधान एक उत्तम और हिमाल श्वेलकमल है. वैसे ही मनुष्यलोक के सभी मनुष्यों में श्रेष्ठ और सब पर शासनकर्ता नरेन्द्र होता है. वह भीर्षस्य एवं स्व-पर अनुगास्ता होता है, जैसे कि पुष्करिणी में कमसों का शीर्षस्थ श्रेष्ठ पुण्डरीक है।
(E) अविवेक के कारण पुष्करिणी के कीचड़ में फँस माने वाले जैसे वे चार पुरुष थे, वैसे ही संसाररूपी पुष्करिणी के कामभोगरूपी कीचड़ या मिथ्या मान्यताओं के दलदल में फंस जाने वाले चार अन्यतीर्थिक हैं, जो पुष्करिणी-पंकमाम पुरुषों की तरह न तो अपना सार कर पाते हैं, न ही प्रधान श्वेतकमलरूप शासक का उद्धार कर सकते हैं ।
(७) अन्यतीक्षिक गृहत्याग करके भी सत्सयम का पालन नहीं करते, अतएव वे न तो गृहस्थ ही रहते हैं, न साधुपद-मोक्षपद प्राप्त कर पाते हैं । वे बीच में फंसे पुरुषों के समान न इधर के न उधर के रहते हैं -उभयभ्रष्ट ही रह जाते हैं ।
(4) जैसे बुद्धिमान् पुरुष पुष्करिणी के भीतर न घुसकर उसके तट पर से ही आवाज देकर उत्तम श्वेतकमल को बाहरनिकाल लेता है, वैसे ही राग-द्वेषरहित साधु काम-भोग रूपी दलदल से युक्त संसार-पुष्करिणी में न घुसकर संसार के धर्मतीर्थरूप तट पर खंडा (तटस्थ-निलिप्त) होकर धर्मकथारूपी आवाज देकर श्वेतकमसरूपी राजा-महाराजा आदि को संसाररूपी पुष्करिणी से बाहर निकाल लेते हैं।
(६) जैसे कमल जल और कीचड़ का त्याग करके बाहर (उनसे ऊपर उठ) आता है, इसी प्रकार उत्तम पुरुष अपने अष्टविध कर्मरूपी जल और काम-मोगरूपी कीचड़ का त्याग करके निर्बाणपद को प्राप्त कर लेते हैं। श्वेतकमल का ऊपर उठकर बाहर आना ही निर्वाण पाना है। (२) क्रियावार
नियुक्तिकार ने कियाबाद के १८० भेद बताए हैं । वे इस प्रकार से है--सर्वप्रथम जीव, अजीक, पुण्य, पाप, आप्रव, संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष इन नौ पदार्थों को क्रमशः स्थापित करके उसके नीचे स्वतः और परत: ये दो भेद रखने चाहिए । इसी तरह उनके नीचे "निन्य" और "अनित्य" इन दो भेदों की स्थापना करनी चाहिए । उसके नीचे क्रमशः काल, स्वभाव, नियति, ईश्वर और पास्मा इन ५ भेदों की स्थापना करनी चाहिए। जैसे-(१) जीव स्वत: विद्यमान है, (२) जोर परतः (दूसरे से) उत्पन्न होता है, (३) जीव नित्य है, (४) जीव अनित्य है, इन चारों भेदों को क्रमशः काल आदि पांवों के साथ सेने से बीस भेद (४४५= २०)