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घरणानुयोग
अकारकबाद
सूत्र २५०-२१२
ईसरेण फरे लोए पहाणाति सहावरे ।
जीव और अजीव से युक्त तथा सुख-दुःख से समन्वित जीवा - जीवसमाउते सुह - नुक्खसमन्निए ॥
(सहित) यह लोक ईश्वर के द्वारा कृत-रचित है (ऐसा कई कहते है) तथा दूसरे (सांख्य) कहते है कि (यह लोक) प्रधान (प्रकृति)
आदि के द्वारा कृत हैं। सपंभुणा कडे लोए इति वृत्तं महेसिणा ।
स्वयम्भू (विष्णु या किसी अन्य) ने इस लोक को बनाया मारेण संयुता माया तेण लोए अप्लासते ।।
है, ऐसा हमारे महर्षि ने कहा है। यमराज ने यह माया रची है,
इसी कारण यह लोक अशाश्वत-अनित्य (परिवर्तनशील) है। भाहणा सभणा एगे आह अंडकडे जगे।
कई माहन (ब्राह्मण) और श्रमण जगत् को अण्डे के द्वारा अप्लो ततमकासी य अयाणता मुसं वक्षे ।
कृत कहते हैं तथा (दे कहते हैं)--ब्रह्मा ने तत्व (पदार्थ-समूह) को बनाया है । वस्तुतत्व को न जानने वाले ये (अज्ञानी) मिध्या
ही ऐसा कहते हैं। सएहि परियारहि लोयं यूया कडे ति य ।
(पूर्वोक्त अन्य दर्शनी) अपने-अपने अभिप्राय से इस लोक को तत्तं ते ण विजाणंतीण विणासि क्याइ वि ॥
कृत (किया हुआ) बतलाते हैं । (वास्तव में) वे (सब अन्यदर्शनी) वस्तुतत्व को नहीं जानते, क्योंकि यह लोक कभी भी विनाशी
नहीं है। अमष्प्युग्णसमुप्पा दुक्खमेव विभागिया।
दुःख अमनोश (अशुभ) अनुष्ठान से उत्पन्न होता है. यह समुष्पादममाता किह नाहिति संवरं ।।
जान लेना चाहिए। दुःख की उत्पत्ति का कारण न जानने वाले -सूय. सु. १, अ. १, उ. ३, गा. ५-१० लोग दुःख को रोकने (संबर) का उपाय कैसे जान सकते हैं ? अकारकवाई
अकारकवाद२५१. कुब्वं च कारवं चेव सवं कुरुवं ण विज्जति ।
२५१, जात्मा स्वयं कोई त्रिया नहीं करता, और न दूसरों से एवं अकारओ अप्पा एवं सेउ पगम्भिया ॥
कराता है, तथा आत्मा समस्त (कोई भी) क्रिया करने वाला नहीं है । इस प्रकार आत्मा अकारक है। इस प्रकार वे (अका
(कवादी सांख्य आदि) (अपने मन्तव्य की) प्ररूपणा करते हैं। जे ते उ वाइगो एवं लोए तेसि कुओ सिया।
जो वे (पूर्वोक्त) वादी (तज्जीय-तच्छरीरबादी) तथा अकारकतमातो ते तमं जंति मंवा आरंभनिस्सिया ॥ वादी इस प्रकार शरीर से भिन्न आत्मा नहीं है, इत्यादि तथा —सूय. सु. १, अ.१, उ. १, गा. १३-१४ "आत्मा अकर्ता और निरिक्रय है" कहते हैं, उनके मत में यह
लोक (चतुर्गतिक संसार या परलोक) कैसे घटित हो सकता है। (वस्तुतः) वे मूब एवं आरम्भ में आसक्त वावी एक (अज्ञान)
अन्धकार से निकलकर दूसरे अन्धकार में जाते हैं। एगप्पवाई
एकात्मवाद२५२ जहा य युद्धयोयूमे एगे माणा हि बीसद ।
२५२. जैसे एक ही पृथ्वीस्तूप (पृथ्वीपिण्ड) नानारूपों में दिखाई एवं भो ! कसिलोए, विष्णू नाणा हि बीसए।
देता है, हे जीवो ! इसी तरह समस्त लोक में (व्याप्त) विश (आत्मा) नानारूपों में दिखाई देता है, अथवा (एक) आत्मरूप
(यह) समस्त लोक नानारूपों में दिखाई देता है। एवमेगे ति संपति, मंदा आरम्भपिस्सिया।
इस प्रकार कई मन्दमति (अज्ञानी), "आत्मा एक ही है", एवं किसचा सयं पावं, तिव्वं दुक्खं नियछह ।। ऐसा कहते हैं, परन्तु) आरम्भ में आसक्त रहने वाला व्यक्ति
-सूय. सु. १, म. १, उ. १, गा. ६-१० पापकर्म करके स्वयं अकेले ही दुःख प्राप्त करते हैं (दूसरे नहीं)।