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दंसणायारो
दर्शनाचार
सम्यक्दर्शन । स्वरूप एवं प्राप्ति के उपाय
दसणसहवं
दर्शन स्वरूप२०६.प. से पूर्ण मंते ! तमेव सच्चं पीसंकजं जिणेहि पवेवयं ? २०६. प्र.-हे भगवन् ! वही सत्य और निःशंक है जो जिन
भगवान् ने कहा है ? स-हंता, गोयमा ! तमेव सरचं णीसंकं जंजिहि उ०—हाँ गौतम ! वही सत्य और नि:शंक है जो जिन भगपवेदयं ।
वान ने कहा है। प.-से गूणं भंते ! एवं मणे धारेमाणे, एवं परेमाणे प्र०-हे भगवन् ! इस प्रकार मन में धारणा करता हुआ, एवं चिट्ठमाणे, एवं संवरेमाणे आणाए आराहए आचरण करता हुआ, स्थिर रहता हुआ, आत्मसंवरण करता
हुआ प्राणी आजा का आराधक होता है ? उ०—हता, गोयमा 1 एवं मणं धारेमाणे-जाव-आणाए उ०—हाँ गौतम ! इस प्रकार मन में धारण करता हुआ
आहए भवइ।। -वि.स.१, उ. ३, सु.६ -यावद - आज्ञा का आराधक होता है। सम्मत्तस्स वीबोवमा--
सम्यक्त्व को द्वीप की उपमा२१.. वममाणाण रामाणं, किस्ताण सफम्मुणा। २१०. (मिथ्यात्व, कषाय एवं प्रमाद आदि संसार-सागर के स्रोतों आधाति साह तं दोवं, पति?
सापबुरचती ॥ के प्रवाह (तीव्रधारा) में बहाकर ले जाते हुए तथा अपने (कृत) -सूय. सु. १. अ. ११, गा. १३ कर्मो (के उदय) से दुःख पाते हुए प्राणियों के लिए तीर्थकर उसे
(निर्वाणमार्य को उत्तम द्वीप परतिरत बताते हैं । (तत्वन्न पुरुष) कहते हैं कि यही मोक्ष का प्रतिष्ठान (संसार भ्रमण से विश्रान्ति
रूप स्थान, या मोक्ष प्राप्ति का आधार) है। दसण लक्खणं---
दर्शन का लक्षण२११. जीवाजीबा व बंधो य, पुण्ण पावासयो तहा। २११. (१) जीव, (२) अजीन, (२) बन्ध (४) पुण्य, (५) पाप, संघरो निजरा मोषखो, संत ए तहिया नय ।। (६) आश्चव, (७) संवर, (८) निस और (६) मोक्ष ये नव
पदार्थ सत्य हैं। तहियाणं तु भायाणं, सम्मावे उपएसणं । जीवादि इन सत्य पदार्थों के सद्भाव में स्वभाव से या उपभावेणं सइहं तस्स, सम्मतं तं विवाहियं ॥ देश से जो भानपूर्वक श्रद्धा है उसे सम्यक्त्व कहा गया है।
-उत्त, म. २८, गा. १४-१५ इणमेव गायकवंति जे जणा धुवचारिणो।
जो पुरुष ध्र वचारी-अर्थात् शाश्वत सुख केन्द्र मोक्ष की जाति - मरगं परिणाय • चरे संकमगे रखे ॥ ओर गतिशील होते हैं, ये ऐसा विपर्यासपूर्ण जीवन नहीं चाहते । -आ. सु. १, अ. २, उ. ३, सु. ७८ वे जन्म-मरण के चक्र को जानकर दृढ़तापूर्वक मोक्ष के पथ पर
पढ़ते रहें।