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मूत्र २२५-२२६
बोलिलाम में बाधक और साधक
शंनाघार
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बोहिलामे बाधगा साहगा य
बोधिलाभ में बाधक और साधकदो ठागाई अपरियाणिता आया णो केवलि बोहिं बुजमेग्जा, दो स्थानों का (हेतुओं का) त्याग किए बिना आत्मा को शुद्ध तं जहा- • आरभे वेव, परिाहे चेन ।
सम्यक्त्व (बोध) प्राप्त नहीं होता है, यया-आरम्भ और
परिग्रह । वो ठाबाई परिमाणित्ता आया केवलं बोहि बुनमज्जा, दी स्थानों का त्याग करने पर आत्मा शुद्ध बोध (सम्यक्त्व) सं जहा -आरंभे चेष, परिम्ह चेव ।
प्राप्त करता है, यथा -आरम्भ और परिग्रह । रोहि ठाणेहिं आया केवलं बोहि बुझज्जा, तं जहा
दो स्थानों से आत्मा शुद्ध बोध को प्राप्त होता है, यथा--- सोचा चेव, अभिसोच्या वेव।
सुनकर और समझकर। कोहि वाणेहि आया फेवल बोहि बुझेज्जा, तं जहा
दो स्थानों से आत्मा शुद्ध बोध को प्राप्त होता है, यथा - एग वेव, उक्समेण चेव । -- ठाणं, अ.२, उ. १, सु. ५४ कर्मों के क्षय से अथवा उपशम से। सहालु आ, असड्ढालु आ--
धद्धालु-अश्रद्धालु२२५. १. सतिस्स समणुनस्स संपवयमाणस्स-समियं ति २२५. (१) दीक्षित होने के समय वैराग्यवान् श्रद्धालु जिन प्रवमन्नमाणस्स एगया समिया होइ,
पन को सम्यग् मानता है और भविष्य में भी सम्यग् मानता है। २. साहस समणुनस्स संपवयमाणस्स-समियं ति मन्त्र- (२) दीक्षित होने के समय वैराग्यवान् श्रद्धालु जिन प्रवचन माणस्स एगया असमिया होइ,
को समानता है कि रविष्य में सम्यग् नहीं मानता है। ३. सविस्स गं समगुप्तस्स संपध्वयमाणस्स- असमियं ति (३) दीक्षित होने के समय वैराग्यवान् श्रद्धालु जिन प्रवचन मन्नमाणस्स एगया समिया होइ,
को असम्यग् मानता है किन्तु भविष्य में सम्यग् मानता है। ४. सडिस गं समणुनस्स संपवयमाणस्स-असमिय ति (४) दीक्षित होने के समय वैराग्यवान् श्रद्धालु जिन प्रवचन मनमाणस्स एगया असमिया होइ।
को असम्यग् मानता है और भविष्य में भी असम्पग मानता है। ५. समियं ति मनमाणस्स समिया वा, असमिया या, समिया (५) जो जिन प्रजयन को सम्यग् मानता है उसे सम्यक् या होई जवेहाए।
असम्यक पदार्थ विचारणा से राम्यक् रूप में परिणत होते हैं। ६. असमियं ति मन्नमाणस्स समिपा वा, असमिया वा, (६) जो जिन प्रवचन को असम्यक मानता है उसे सम्यक असमिया होइ, उबेहाए।
या असम्यक् पदार्थ असम्यक् विचारणा से असम्यक् रूप में परि.
णत होते हैं। जवेहमायो अणवेहमाणो यूया-"उबेहाहि समियाए" विचारक पुरुष अविचारक पुष से कहे कि हे पुरुष !
मम्यक विचार कर। पच्चे तस्य संघो मोसिओ भवद ।
इस प्रकार (सम्यग् विचार से ही) संयमी जीवन में कर्म क्षय
किये जाते हैं। सविसस्स ठितस्स गति समणुपासह ।
इस प्रकार से व्यवहार में होने वारनी सम्यक असम्यक् की गुत्थी सुलझाई जा सकती है अर्थात् इस पद्धति से (मिथ्यास्वादि के कारण होने वाली) कर्मसन्तति रूप सन्धि तोड़ी जा
सकती है। एस्य वि बालभाये अपाणं-णो उपदसेज्या।
तुम अज्ञान भाव में भी अपने आपको प्रदर्शित मत करो। -आ. सु. १. अ. ५, उ. ३, सु. १६६ सम्म'सणि समणस्स परीसहविजयो
सम्यग्दर्शी श्रमण का परीषह-जय२२६, तमओ डागा बयसिथस्स हिताए सुभाए खमाए गिस्साए २२६. व्यवसित (श्रद्धालु) निर्ग्रन्थ के लिए तीन स्थान हित, शुभ, आगुगामियसाए भवंति, तं महा
क्षम, निःश्रेयस और अनुगामिता के कारण होते हैं, यथा