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चरणानुयोग
संवेग आदि का फल
सूत्र २२८-२२६
६७. कोहविजए ६८, माणविजए
६७. क्रोध-विजय ६८. मान-विजय ६६. मायाविभए ७०. लोहविजए
६६. माया-विजय ७०. लोभ-विजय ७१. पेदोसमिच्छादसणविजए
७१. प्रेयो-टेप-मिथ्या-दर्जन विजय ७२. सेलेसी ७३. अकम्मया।
७२. गनेशी
७३. अकर्मना। -जुत्न. अ.१ .१.२ संवेगाइणं फलं
संवेग आदि का फल२२१. १०-संवेगेणं भंते ! जीवे कि जगयह?
२२६. प्र०-भन्ते । संवेग (मोक्ष की अभिलाषा) से जीव क्या
प्राप्त करता है? उ.--संवेगे गं गणुतरं धम्मसद्ध जणयइ । अणुत्तराए धम्म- उ०-संवेग से बह अनुत्तर धर्म-श्रजा को प्राप्त होता है।
सदाए संवेग हस्वमागच्छइ । अणन्तावन्धिकोहमाण- अनुत्तर धर्म-श्रद्धा से शीन ही और अधिक संवेग को प्राप्त करता मायासोभे खवेइ । कामं न वन्धइ । तपच्छाइयं च णं है। अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, और लोभ का क्षय करता मिच्छत्तविसोहि काऊण बंसणाराहए भवइ । बसण- है। नये कर्मों का संग्रह नहीं करता। कषाय के क्षीण होने से विसरेनीए य णं विमुताए अस्थालेकोख भागहरे प्रकट होने वाली मिथ्यात्व-विशुद्धि कर दर्शन (सम्यक-श्रद्धा) को सिज्मद । सोहीए य णं विसुद्धाए तच्वं पुणो मवग्गहणं आराधना करता है । दर्शन-विशोधि के विशुद्ध होने पर कई एक सिना । सोहीए य णं विसुद्धाए तन्चं पुणो भवागणं जोब उसी जन्म से सिद्ध हो जाते हैं और कई उसके विशुद्ध होने माइक्कमद।
पर तीसरे जन्म का अतिक्रमण नहीं करते-उसमें अवश्य ही
-उत्त. अ. २६, सृ. ३ सिद्ध हो जाते हैं। १०- अह भंते | संवेगे, मिश्येए, गुरु-साहम्मिय-सुस्सूसणया, प्र-आयुष्मन् श्रमण भगवन् ! संवेग, निवेद, गुरु-सार्मिक
आलोयणया, निवयणया, गरहणया, खमावणया, सुह- शुश्रूषा, आलोचना, निन्दना, गर्हणा, क्षमापना, श्रुत-सहायता, सायया, विउसमणया, भावे अपविजया, विणिपट्टणया, ब्युपशमना, भाव में अप्रतिबद्धता, विभिदत्तंना, विविक्त शयनासनविवित्त-सयणासण-सेवणया, सोइंदिय-संवरे-जाव- सेबनता, थोत्रेन्द्रिय-रांवर-याक्त-स्पर्गेन्द्रिव संवर, योग-प्रत्याकासिरिय-संबरे, जोग-पश्चखाणे, सरीर-पचपखाणे, ख्यान, शरीर-प्रत्याख्यान, कषाय-प्रत्याख्यान, सम्भोग-प्रत्याख्यान, कसम्य-पस्वपसाणे, संभोग-
परमाणे, उवहि-पच्च- उपधि-प्रत्याख्यान, भक्त-प्रत्याख्यान, क्षमा, विरागता, भाव-सत्य, क्साणे, पत्त-पस्यखाणे, खमा, विरागया, भाव-सच्चे, योग-सत्य, करण-सत्य, मनःसमन्याहरण, वचन-समन्वाहरण, जोग-सच्चे, करण सच्चे, मण-समन्नाहरणया, बड्- काय समन्वाहरण, कांध-विवेक-थावत्-मिथ्यादर्शनशल्यसमन्नाहरणया, काय समन्नाहरणपा, कोह-विवेगे--जाव- विचेक, ज्ञान-सम्पन्नता, दर्शन-मम्पन्नता, चारित्र-सम्पन्नता, वेदनामिच्छावंसग-सल्ल-विवेमें, गाण-संपन्नया, सण- अध्यासनता और मारणान्तिक-अध्यासनता इन पदों का अन्तिम संपन्नया, परित्त-संपन्नया, वेदग-अहियासप्पया, मार- फल क्या कहा गया है ? मंतिय-अहियासणया, एए पं भंते ! पया कि पज्जवसाणफला समणाउसे?
१ सम्बस्व पराक्रम अध्ययन के इन सूत्रों में सम्यग्दर्शन से सम्बन्धित केवल चार सूत्र हैं और शेष सूत्र अन्यान्य विषयों के हैं वे
जिन-जिन अनुयोगों के हैं उन-उन अनुयोगों में यथास्थान दिये गये हैं। २ (क) उत्तराध्ययन भ. २६ में संवेग से अकम्ममा तक ७१ प्रश्नोत्तर है (मतान्तर से ७२ या ७३ प्रश्नोत्तर है) और इस उपरोक्त
प्रश्नोत्तर में केवल ५४ पद हैं, जिनके फल का इसमें कथन है ? इस क्रम भेद और संख्या भेद का क्या कारण है। यह मोध का विषय है । कुछ विद्वान इसका कारण वाचना भेद बताते हैं। कुछ विद्वानों की यही मान्यता है कि--भगवती सूत्र के ये
प्रश्नोत्तर उत्तराध्ययन अ. २६ का संक्षिप्त पाठ है। (ख) प्रमन के अन्त में "समकाउसो" सम्बोधन अशुद्ध प्रतीत होता है । क्योंकि हे "आयुष्मन् श्रमण" यह सम्बोधन गुरु शिष्य के
लिये करता है । यहाँ इससे विपरीत है।