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सूत्र २४४
मिथ्यादर्शन विजय का कलं
वर्शनाचार
१४७
जगया?
मिच्छादसणविजओ फलं
मिथ्यादर्शन विजय का फल२४४. प.---पज्ज-दोस-मिच्छाबसणविजएणं भंते ! जीवे किं २४८.प्र. -भन्ने ! प्रेम, द्वेष और मिथ्या-दर्शन के विजय से
जीव क्या प्राप्त करता है? उ-ज्ज-दोस-मिच्छावसाधिजएणं नाण-दसण-चरितारा- उ०.-प्रेम, कैप और मिथ्या दर्शन के विजय से वह ज्ञान,
हगवाए आफुह। "अविहस्स कम्मस्स कम्मगण्ठि- दर्शन और चारित्र की आराधना के लिए उद्यत होता है। आठ विमोयणाए" तप्पलमपाए जहागुपुश्वि अट्ठवासइविहं कगों में जो कभप्रन्थि (चात्य-कम) है, उसे खोलने के लिए वह मोहणिज्ज कम्म उग्याएछ, पंचविहं नाणावरणिज नव- उद्यत होता है । वह जिसे पहले कभी भी पूर्णतः क्षीण नहीं कर बसणावरणिज्ज पंचविहं अन्तरायं एए तिनि वि पाया उस अट्ठाईस प्रकार वाले मोहनीय कर्म को क्रममाः सर्वथा कम्मसे जुगवं खवेद ।
क्षीण करता है, फिर वह पाँच प्रकार वाले ज्ञानावरणीय, नौ प्रकार वाले दर्शनावरणीय और पाँच प्रकार वाले अन्तराय- इन
तीनों विद्यमान कर्मों को एक साथ क्षीण करता है। तओ पच्छा अणुतरं अगंतं कसिगं परिपुषण निरावरणं उसके पश्चात् वह अनुत्तर, अनन्त, कृतन, प्रतिपूर्ण, निरावितिमिरं विसुद्ध लोगालोगप्पभावगं केवल-बरनाण- वरण तिमिर रहित, विशुद्ध लोक और अलोक को प्रकाशित करने दसणं समुप्पाइ।
वाले केवलज्ञान और केवलदर्शन को उत्पन्न करता है। -जाब-सजोगी भवद, ताव य इरियावहियं कम्म बन्धा जब तक वह सयोगी होता है तब तक उसके ई-पधिक-कर्म सुहफरिसं दुसमपट्टिइयं।
का बन्ध होता है । बन्ध सुख-स्पर्श (पुण्य-मय) होता है। उसकी
स्थिति दो समय की होती है। तं पढमसमए मख, बिइयसमए वेदयं, तइयसमए प्रथम समय में बन्ध होता, द्वितीय समय में वेदा जाता है निग्जिण संबसं पुट्ठ उबीरियं बेहयं निजि सेयाले और तीसरे समय में वह निर्जीर्ण हो जाता है। वह कर्म बद्ध होता य अफम्म चावि भवह ॥
है, स्पृष्ट होता है, उदय में आता है, भोगा जाता है. नष्ट हो
जाता है और अन्त में भकर्म भी हो जाता है। अहाउयं पालइत्ता अन्तोमुहत्तद्धावसेसाउए जोगमिरोहं वेवली होने के पश्चात् वह शेष आयुष्य का निर्वाह करता करेमाणे सुहमकिरिये अपहिवाइ मुक्कज्माणं झायमाणे है। जब अन्तरमुहूतं परिमाण आयु शेष रहती है, वह योगतपढमयाए "मणजोग निहम्मद निम्मित्ता, बहमोग निरोध करने में प्रवृत्त हो जाता है । उस समय सूक्ष्म-विय अप्रनितम्भ निरुम्मित्ता, करजोगं निरुम्भ निम्भित्ता तिपाति नामक शुक्लध्यान में लीन बना हुआ वह सबसे पहले आणापाणुनिरोह" करे करिता ईसि पंचहस्सक्न- मनो-योग का निरोध करता है, फिर वचनयोग का निरोध करता, रुच्चारणबाए य णं अणगारे समुच्छिन्नकिरियं अनियट्टि- फिर काययोग निरोध करता है, उसके पश्चात् आनापान (उच्छ्सुबकज्माण मियायमाणे वणिज, आउयं, नाम, वास-निपवास) का निरोध करता है, उसके पश्वात् स्वल्पकाल गोतं च एए चत्तारि वि कम्मसे अगवं खयेह । तक पाँच ह्रस्वाक्षरों (अ इ उ ऋल) का उच्चारण किया जाये
उतने काल तक समुच्छिन्न-क्रियाअनिवृत्ति नागक शुक्लध्यान में नीन बना हुआ अनागार वेदनीय आयुष्य, नाम और गोत्र-इन
चार कमों को एक साथ क्षीण करता है। तमो ओरालियफम्माई च सवाहि विष्पजहणाहि ग़के बाद वह औदारिक और कार्मण शरीर को सदा के विपहिता उज्जुसे विपत्ते अफुसमाणगई उड्स एगसम- लिए सर्वथा परित्याग कर देता है। सम्पूर्णरूप से इन शरीरों से एणं अविगहेणं तत्थ गन्ता सागारोबउसे सिता बुज्झा रहित होकर वह ऋजुश्रेणी को प्राप्त होता है और एक समय में मुच्छह परिनिवाए सम्बदुक्खाणमन्तं करे । अस्पृगद्गतिरूप गति से बिना मोड़ लिए (अविग्रह रूप से) - उत्त, अ.२६, मु. ७३.७५ सीधे यहाँ लोकाय में) जाकर साकारोपयोगयुक्त (ज्ञानोपयोगी
अवस्था में) सिद्ध होता है, बुद्ध होता है, मुक्त होता है, परिनिर्वाण को प्राप्त होता है और समस्त दुःखों का अन्त कर देता है।