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बरगानुयोग
प्रम करने की विधि
सूत्र १५७-१५८
पण्हकरणविही--
प्रश्न करने की विधि
१५७. कालैग पुच्छे समियं पयासु,
माइक्खमाणो दवियस्स वितं । तं सोयकारी य पुढो पवेसे,
संखा इम फेवतियं समाहि ॥
१५७, (गुरुकुलवासी) साधु (प्रश्न करने योग्य) अक्सर देखकर सम्यग्ज्ञानसम्पन्न आचार्य से प्राणियों के सम्बन्ध में प्रश्न पूछे । तथा मोक्षगमन योग्य (द्रव्य) सर्वज्ञ वीतराग प्रभु के आगम (ज्ञान-धन) को बताने वाले आचार्य की पूजा भक्ति कर । आचार्य को आज्ञाकारी मिष्य उनके द्वारा उपदिष्ट केवलि-प्ररूपित सम्यकज्ञानादिरूप समाधि को भलीभांति जानकर हृदय में स्थापित करे ।
अस्सि मुठिम्या तिविहेण तायो,
एसेतु या संति निरोहमाह। ते एवमरखंति तिलोगरंसी,
ण भुजमेत ति पमायसंग ॥
इसमें (गुरुकुलवास काल में) गुरु से जो उपदेश सुना और हृदय में भलीभांति अवधारित किया, उस समाधिभूत मोक्षमार्ग में अच्छी तरह स्थित होकर मन-वचन-नाया से कृत, कारित और अनुमोदित रूप से स्व-पर-त्राता (अपनी आस्मा का और अन्य प्राणियों का रक्षक) बना रहे। इन समिति-गुप्ति-आदि रूप समाधिमार्गों में स्थिर हो जाने पर सर्वज्ञों ने शान्तिलाभ और कर्मनिरोध बताया है। त्रिलोकदर्शी महापुरुष कहते हैं कि साधु को फिर कभी प्रमाद का संग नहीं करना चाहिए ।
जिसम्म से भिक्ख समोहम,
गुरफूलदासी वह साधु उत्तम साधु के भाचार को सुनकर परिमाणवं होति विसारते या ।
अथया स्वयं अभीष्ट अर्थ---मोक्ष रूप अर्थ को जानकर गुरुकुलवास आयाणमट्टी वोवाण मोणं,
से प्रतिभावान एवं सिद्धान्त विशारद (स्वसिद्धान्त का सम्यग्जाता अवेच्छ सुद्धग उवेति मोरवं ।। होने से थोताओं को यथार्थ-वस्तुतत्व के प्रतिपादन में निपूण) -सूय. सु. १, अ. १४, गा. १५-१७ हो जाता है । फिर सम्यम्ज्ञान आदि से अथवा मोक्ष से प्रयोजन
रखने वाला (आदानार्थी) बह साधु तप (व्यवदान) और मौन (संयम) ग्रहण रूप एवं आसेवन रूप शिक्षा द्वारा (उपलब्ध करके शुद्ध) निरुपाधिफ उद्गमादि दोष रहित आहार से निर्वाह करता टुमा समस्त कर्मक्षयरूप मोक्ष को प्राप्त करता है।
उत्सरविही
उत्सरविधि
१५८. संखाय धम्म व बियागरेंति,
बुदा हु ते अंतकरा भवति । से पारगा वोह वि मोषणाए,
संसोधितं पण्हमुवाहरति ॥
१५८. (गुरुकुलवासी होने से धर्म में सुस्थित, बहुश्रुत, प्रतिभावान् एवं सिद्धान्त विशारद) साधु मबुद्धि से (स्व-पर-शक्ति को, पर्षदा को या प्रतिपाद्य विषय को सम्यक्तमा जानकर) दूसरे को श्रत-चारित्र-धर्म का उपदेश देते हैं (धर्म की व्याख्या करते हैं)। ये बुद्ध-त्रिकालवेता होकर जन्म-जन्मान्तर संचित्त कर्मों का अन्त करने वाले होते हैं। वे स्वयं दूसरों को कर्मपाश से अथवा ममत्वरूपी बेड़ी से मुक्त करके संसार-पारगामी हो जाते हैं। बे सम्यक्तया सोच-विचार कर (प्रश्नकर्ता कौन है ? यह किस पदार्थ को समझ सकता है, मैं किस विषय का प्रतिपादन करने में समर्थ हूँ? इन बातों को भलीभांति परीक्षा करके) प्रश्न का संशोधित (पूर्वापर अविरुवा उत्तर देते हैं।