________________
सूत्र ११-११६
गुरु के समीप बैठने की विधि
विनय तानाचार
८३
माय चण्डालिय कासी, बयं मा य आलवे।
(शिष्य) चण्डालोचित कर्म (ऋर-व्यवहार) न करे। बहुत कासे ग य अहज्जित्ता, सओ साएज्म एगगो।। न बोले । स्वाध्याय के काल में स्वाध्याय करे और उसके पश्चात
--उत्त. अ. १, गा.-१० अकेला ध्यान करे । परिणीयं च बुवाणं, गया अनुव कम्मुणा ।
(शिष्य) लोगों के समक्ष या एकान्त में, वचन से या कर्म से, आबी वा जहवा रहस्से, नेव कुज्जा कयाइ वि।। कभी भी आचार्यों के प्रतिकूल वर्तन न करे ।
-उत्त. अ.१, गा. १७ भारिएहि वाहि-तो, तुसिप्पीओ न कयाइ वि।
आचार्यों के द्वारा बुलाये जाने पर किसी भी अवस्था में पसाय-पेही नियागट्टी, उचिट्ठ गुरु सया ॥ मौन न रहे, गुरु के प्रसाद को चाहने वाला, मोक्षाभिलाषी शिष्य
-इत. अ. १, गा. २० सदा उनके समीप रहे । न कोवए आयरिय, अप्पाणं पि न कोवर।
शिप्य आचार्य को कुपित न करे। स्वयं भी कुपित न हो। मुद्धोषधाई सिया, न सिया तोत्तगवेसए॥ आचार्य का उपघात करने वाला न हो। उनका छिद्रान्वेषी
-उत्त, अ.१, गा, ४० न हो। आहज्य चण्डालिप कटु, न निहविजय कामाय नि।
राम राहा अण्डालांचित कर्म कर उसे कभी भी न 'क करें' ति मासेज्जा, 'अकांनी कडे ति य॥ छिपाए । अकरणीय किया हो तो किया और नहीं किया हो तो
-उत्त. अ.१, गा, ११ न किया कहे। गुरुसमीवनिसीयण विही
गुरु के समीप बैठने की विधि११८. न पक्खो न पुरओ, नेव किश्माण पिट्ठओ। ११८. (शिष्य) आचार्यों के बराबर न बेटे। आगे और पीछे भी न [जे उहणा उक', सयणे नो पङिस्सुणे ॥ न बैठे। उनके उरू (जांच) से अपना उरू सटाकर न बैठे।
विष्ठीने पर बैठा ही उनके आदेश को स्वीकार न करे, किन्तु उसे
छोड़कर स्वीकार करे। नेव पन्हत्यियं कुज्जा, पक्वपिण्वं व संजए। __ संयमी मुनि गुरु के समीप पालयी लगाकर (घुटनों और पाए पसारिए वाषि, न निळे गुरुणन्तिए । जाँघों के चारों ओर वस्त्र बाँधकर) न बैठे। पक्ष-पिण्ड कर -उत्त. अ. १, पा.१८-१९ (दोनों हाथों से शरीर को बांधकर) या पैरों को फैलाकर
न बैठे। आसणे उचिट्ठज्जा, "अणुच्चे अकुए" थिरे ।
जो गुरु के आसन से मीना हो, अकम्पमान हो और स्थिर अस्पृट्ठाई निरुट्ठाई, निसीएज्जयकुक्कुए ॥ हो (जिसके पाये धरती पर टिके हुए हों) वैसे आसन पर बैठे।
--उत्त. अ. १. गा.१० प्रयोजन होने पर भी बार-बार न उठे। बैठे तब स्थिर एवं
शान्त होकर बैठे। हाथ-पैर आदि से चपलता न करे। पाह पुच्छा विही
प्रश्न पूछने की विधि११६. हसोगवारतहियं , जेणं गच्छाइ सोगई। ११६. जिस यमणधर्म के द्वारा इहलोक और परलोक में हित बहुस्मुर्य पन्जुवासेज्जा, पुच्छेजस्थविणिच्छयं ॥ होता है, मृत्यु के पश्चात् सुगति प्राप्त होती है, उसकी प्राप्ति
-दस. अ.८, गा. ४६ के लिए वह बहुश्रुत की पर्युपासना करे और अर्थ विनिश्चय के
लिए प्रपन करे। आसण गो न पुच्छेज्जा, नेष ''सेन्जा-गो कयाइ" वि। आसन पर अथवा शय्या पर बैया-बैठा कभी भी गुरु से मागम्मु पुक्कुइमोसन्तो, पुच्छेज्जा पंजलीजडो॥ कोई बात ग पूछे, परन्तु उनके समीप आकर उकडू बैठ, हाथ
--उत्त. अ. १, गा. २२ जोड़कर पूछे।
1 उस्कटासन-गोवुहासन को कहते हैं ।